________________ 240] [उत्तराध्ययनसूत्र वार्तिक के अनुसारज्वर, सन्निपात आदि अत्यन्त भयंकर रोगों के होने पर भी जो अनशन, कायक्लेश आदि तपश्चरण में शिथिल नहीं होते और जो भयावह श्मशान, पर्वत-गुफा आदि में निवास करने में अभ्यस्त होते हैं, वे 'घोर तपस्वी हैं और ऐसे घोर तपस्वी जब अपने तप और योग को उत्तरोत्तर बढ़ाते जाते हैं, तब वे 'घोरपराक्रमी' कहलाते हैं / तप के अतिशय की जो सात प्रकार की ऋद्धियाँ बताई हैं, उनमें छठी ऋद्धि 'घोरपराक्रम' है / ' धम्मपरायणा : वो रूप : दो अर्थ---(१) धर्मपरायण-धर्मनिष्ठ। अथवा (2) धम्मपरंपर (पाठान्तर)-धर्मपरम्पर-जिन्हें परम्परा से (साधुदर्शन से दोनों कुमारों को, कुमारों के निमित्त से पुरोहित-पुरोहितानी को, इन दोनों के निमित्त से रानी कमलावती को और रानी के द्वारा राजा को) धर्म मिला, ऐसे। // इषकारीय : चौदहवाँ अध्ययन समाप्त / / 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 411 (ख) तत्त्वार्थराजवार्तिक 3 / 36, पृ. 203 2. वृहद्वृत्ति, पत्र 411 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org