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________________ चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय] [237 43. एवमेव वयं मूढा कामभोगेसु मुच्छिया। ___ उज्झमाणं न बुज्झामो रागद्दोसऽग्गिणा जगं // [42-43] जैसे वन में लगे हुए दावानल में जलते हुए जन्तुओं को देख कर रागद्वेषवश अन्य जीव प्रमुदित होते हैं इसी प्रकार कामभोगों में मूच्छित हम मूढ लोग भी रागद्वेष की अग्नि में जलते हुए जगत् को नहीं समझ रहे हैं। 44. भोगे भोच्चा वमित्ता य लहुभूयविहारिणो / आमोयमाणा गच्छन्ति दिया कामकमा इव // [44] आत्मार्थी साधक भोगों को भोग कर तथा यथावसर उनका त्याग करके वायु की तरह अप्रतिबद्धविहारी-लघुभूत होकर विचरण करते हैं। अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्र विचरण करने वाले पक्षियों की तरह वे साधुचर्या करने में प्रसन्न होते हुए स्वतन्त्र विहार करते हैं। 45. इमे य बद्धा फन्दन्ति मम हत्थऽज्जमागया। वयं च सत्ता कामेसु भविस्सामो जहा इमे // [45] हे आर्य ! हमारे (मेरे और आपके) हस्तगत हुए ये कामभोग जिन्हें हमने नियन्त्रित (बद्ध समझ रखा है, वे क्षणिक हैं, नष्ट हो जाते हैं।) और हम तो (उन्हीं क्षणिक) कामभोगों में आसक्त हैं, किन्तु जैसे ये (पुरोहितपरिवार के चार सभ्य) बन्धनमुक्त हुए हैं, वैसे ही हम भी होंगे। 46. सामिसं कुललं दिस्स बज्झमाणं निरामिसं / __आमिसं सम्वमुज्झित्ता विहरिस्सामि निरामिसा // [46] मांस सहित गिद्ध को देख उस पर दूसरे मांसभक्षी पक्षी झपटते हैं (उसे बाधा-पीड़ा पहुँचाते हैं) और जिसके पास मांस नहीं होता उस पर नहीं झपटते, उन्हें देख कर मैं भी आमिष, अर्थात् मांस के समान समस्त कामभोगों को छोड़ कर निरामिष (नि:संग) होकर अप्रतिबद्ध विहार करूगी। 47. गिद्धोवमे उ नच्चाणं कामे संसारवड्ढणे / ___ उरगो सुवण्णपासे व संकमाणो तणु चरे / / [47] संसार को बढ़ाने वाले कामभोगों को गिद्ध के समान जान कर उनसे वैसे ही शंकित हो कर चलना चाहिए, जैसे गरुड़ के निकट सांप शंकित हो कर चलता है। . 48. नागो ब्व बन्धणं छित्ता अपणो वसहि वए। ___ एयं पत्थं महाराय ! उसुयारि त्ति मे सुयं // [48] जैसे हाथी बन्धन को तोड़ कर अपने निवासस्थान (बस्ती-वन) में चला जाता है, इसी प्रकार हे महाराज इषुकार ! हमें भी अपने (आत्मा के) वास्तविक स्थान (मोक्ष) में चलना चाहिए / यही एकमात्र पथ्य (आत्मा के लिए हितकारक) है, ऐसा मैंने (ज्ञानियों से) सुना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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