________________ [उत्तराध्ययनसूत्र कौंच और हंस की उपमा-पुरोहितानी द्वारा क्रौंच की उपमा स्त्री-पुत्र आदि के बन्धन से रहित अपने पुत्रों की अपेक्षा से दी गई है / हंस की उपमा इसके विपरीत स्त्री-पुत्रादि के बन्धन से युक्त अपने पति की अपेक्षा से दी गई है / ' पुरोहित-परिवार के दीक्षित होने पर रानी और राजा की प्रतिक्रिया एवं प्रतिबद्धता 37. पुरोहियं तं ससुयं सदारं सोच्चाऽभिनिक्खम्म पहाय भोए / कुडुबसारं विउलुत्तमं तं रायं अभिक्खं समुवाय देवी॥ [37] पुत्र और पत्नी के साथ पुरोहित ने भोगों को त्याग कर अभिनिष्क्रमण (गृहत्याग) किया है, यह सुन कर उस कुटुम्ब की प्रचुर और श्रेष्ठ धन-सम्पत्ति की चाह रखने वाले राजा को रानी कमलावती ने बार-बार कहा 38. वन्तासी पुरिसो रायं ! न सो होइ पसंसिओ। माहणेण परिच्चत्तं धणं आदाउमिच्छसि / / [38] (रानी कमलावती) हे राजन् ! जो वमन किये हुए का उपभोग करता है वह पुरुष प्रशंसनीय नहीं होता / तुम ब्राह्मण (भृगु पुरोहित) के द्वारा त्यागे हुए धन को (अपने अधिकार मैं) लेने की इच्छा रखते हो। 39. सव्वं जगं जइ तुहं सव्वं वावि धणं भवे / सव्वं यि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तव / / _ [36] (मेरी दृष्टि से) सारा जगत् और जगत् का सारा धन भी यदि तुम्हारा हो जाए, तो भी वह सब तुम्हारे लिए अपर्याप्त ही होगा। वह तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता। 40. मरिहिसि रायं ! जया तया वा मणोरमे कामगुणे पहाय / ___ एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं न विज्जई अन्नमिहेह किंचि // [40] राजन् ! इन मनोज्ञ काम-गुणों को छोड़ कर जब या तब (एक दिन) मरना होगा / उस समय धर्म ही एकमात्र त्राता (संरक्षक) होगा। हे नरदेव ! यहाँ धर्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी रक्षक नहीं है। 41. नाहं रमे पविखणी पंजरे वा संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं / अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा परिग्गहारंभनियत्तदोसा // [41] जैसे पक्षिणी पीजरे में सुख का अनुभव नहीं करती, वैसे मैं भी यहाँ आनन्द का अनुभव नहीं करती। अतः मैं स्नेह-परम्परा का बन्धन काट कर अकिंचन, सरल, निरामिष (विषयरूपी आमिष से रहित) तथा परिग्रह और प्रारम्भरूपी दोषों से निवृत्त होकर मुनिधर्म का आचरण करूगी। 42. दवग्गिणा जहा रण्णे डज्ममाणेसु जन्तुसु / अन्ने सत्ता पमोयन्ति रागद्दोसवसं गया // 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 407 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org