________________ चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय) [235 किन्तु इसका भावार्थ है--शोभा पाता है / शाखाएँ वृक्ष की शोभा, सुरक्षा और सहायता करने के कारण समाधि की हेतु हैं।' पहीणपुत्तस्स० : आदि गाथाद्वय का तात्पर्य--जैसे शाखाएँ वृक्ष की शोभा, सुरक्षा और सहायता करने में कारणभूत हैं, वैसे ही मेरे लिए ये दोनों पुत्र हैं / पुत्रों से रहित अकेला मैं सूखे ढूंठ के समान हूँ। पांखों से रहित पक्षी उड़ने में असमर्थ हो जाता है तथा रणक्षेत्र में सेना के बिना राजा शत्रुओं से पराजित हो जाता है और जहाज के टूट जाने से उसमें रखे हुए सोना, रत्न आदि सारभूत तत्त्व नष्ट हो जाने पर वणिक विषादमग्न हो जाता है, वैसे ही पुत्रों के बिना मेरी दशा है। अग्गरसा : तीन अर्थ-(१) अग्न-प्रधान मधुर आदि रस / यद्यपि रस कामगुणों के अन्तर्गत आ जाते हैं, तथापि शब्दादि पांचों विषय-रसों में इनके प्रति आसक्ति अधिक होने से इनका पृथक् ग्रहण किया गया है। ये प्रधान रस हैं / अथवा (2) कामगुणों का विशेषण होने से अग्न-रसशृगारादि रस वाले अर्थ होता है। (3) प्राचीन व्याख्याकारों के अनुसार--रसों अर्थात्-सुखों में अग्र जो कामगुण हैं। पच्छा—पश्चात्-भुक्तभोगी होकर बाद में अर्थात् वृद्धावस्था में / पहाणमग्गं–महापुरुषसेवित प्रव्रज्यारूप मुक्तिपथ / भोइ-भवति-यह सम्बोधन वचन है, जिसका भावार्थ है-हे ब्राह्मणि ! / पडिसोयगामी--प्रतिकूल प्रवाह की ओर गमन करने वाला। जुण्णो व हंसो पडिसोयगामी-जैसे बूढ़ा अशक्त हंस नदी के प्रवाह के प्रतिकूल गमन शुरू करने पर भी अशक्त होने पर पुनः अनुकूल प्रवाह की ओर दौड़ता है, वैसे ही आप (पुरोहित) भी दुष्कर संयमभार को वहन करने में असमर्थ होकर कहीं ऐसा न हो कि पुनः अपने बन्धु-बान्धवों या पूर्वभुक्त भोगों को स्मरण करें। पुरोहित का पत्नी के प्रति गृहत्याग का निश्चय कथन--३४ वीं गाथा का प्राशय यह है कि जब ये हमारे दोनों पुत्र भोगों को साँप के द्वारा केंचुली के त्याग की तरह त्याग रहे हैं, तब मैं भक्तभोगी इन भोगों को क्यों नहीं त्याग सकता ? पुत्रों के बिना असहाय होकर गृहवास में मेरे रहने से क्या प्रयोजन है ? धोरेयसीला-धुरा को जो वहन करें वे धौरेय / उनकी तरह अर्थात्-उठाये हुए भार को अन्त तक वहन करने वाले धौरेय-धोरी बैल होते हैं, उनकी तरह जिनका स्वभाव है। अर्थात-- महाव्रतों या संयम के उठाए हुए भार को अन्त तक जो वहन करने वाले हैं। 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 405 2. वही, पत्र 405 3. वही, पत्र 406 4. वही, पत्र 406 5. वही, पत्र 407 6. वही, पत्र 407 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org