________________ 234] [उत्तराध्ययनसूत्र [32] (पुरोहित)-भवति ! (प्रिये !) हम विषय-रसों को भोग चके हैं। (अभीष्ट क्रिया करने में समर्थ) वय हमें छोड़ता जा रहा है। मैं (असंयमी या स्वर्गीय) जीवन (पाने) के लिए भोगों को नहीं छोड़ रहा है। लाभ और अलाभ, सुख और दुःख को समभाव से देखता हा मूनिधर्म का प्राचरण करूगा / (अर्थात् मुक्ति के लिए ही मुझे दीक्षा लेनी है, कामभोगों के लिए नहीं)। 33. माह तुम सोयरियाण संभरे जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी / भुंजाहि भोगाइ मए समाणं दुक्खं खु भिक्खायरियाविहारो॥ [33] (पुरोहितपत्नी)-प्रतिस्रोत (उलटे प्रवाह) में बहने वाले बूढ़े हंस की तरह कहीं तुम्हें फिर अपने सहोदर भाइयों (स्वजन-सम्बन्धियों) को याद न करना पड़े ! अत: मेरे साथ भोगों को भोगो / यह भिक्षाचर्या और (ग्रामानुग्राम) विहार करना आदि वास्तव में दुःखरूप ही है / 34. जहा य भोई ! तणुयं भुयंगो निम्मोणि हिच्च पलेइ मुत्तो। एमए जाया पयहन्ति भोए ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्को // [34] (पुरोहित) भवति ! (प्रिये !) जैसे सर्प शरीर से उत्पन्न हुई केंचुली को छोड़ कर मुक्त मन से (निरपेक्षभाव से) आगे चल पड़ता है, वैसे ही दोनों पुत्र भोगों को छोड़ कर चले जा रहे हैं / तब मैं अकेला क्यों रहूँ? क्यों न उनका अनुगमन करू ? 35. छिन्दित्तु जालं अबलं व रोहिया मच्छा जहा कामगुणे पहाय / धोरेयसीला तवसा उदारा धीरा हु भिक्खायरियं चरन्ति / / [35] जैसे रोहित मच्छ कमजोर जाल को (तीक्ष्ण पूंछ आदि से) काट कर बाहर निकल जाते हैं, वैसे ही (जाल के समान बन्धनरूप) कामभोगों को छोड़ कर धारण किये हुए गुरुतर भार को वहन करने वाले उदार (प्रधान), तपस्वी एवं धीर साधक भिक्षाचर्या (महावती भिक्षु की चर्या) को अंगीकार करते हैं / (प्रतः मैं भी इसी प्रकार की साधुचर्या ग्रहण करूगा)। 36. जहेव कुचा समइक्कमन्ता तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा / पलेन्ति पुत्ता य पई य मज्झ ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्का ? [36] (प्रतिबुद्ध पुरोहितपत्नी यशा)-जैसे क्रौंच पक्षी और हंस उन-उन स्थानों को लांघते हुए बहेलियों द्वारा फैलाये हुए जालों को तोड़ कर आकाश में स्वतन्त्र उड़ जाते हैं, वैसे ही मेरे पुत्र और पति छोड़ कर चले जा रहे हैं; तब मैं पीछे अकेली रह कर क्या करूंगी ? मैं भी क्यों न उनका अनुगमन करू ? (इस प्रकार पुरोहितपरिवार के चारों सदस्यों ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली)। विवेचन-वासिद्वि : वाशिष्ठि- यह पुरोहित द्वारा अपनी पत्नी को किया गया सम्बोधन है। इसका अर्थ है—'हे वशिष्ठगोत्रोत्पन्ने !' प्राचीन काल में गोत्र से सम्बोधित करना गौरवपूर्ण समझा जाता था। समाहि लहई-शब्दशः अर्थ होता है-शाखाओं से वृक्ष समाधि (स्वास्थ्य) प्राप्त करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org