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________________ चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय] [233 ___ अणागयं नेव य अस्थि किंचि : तीन अर्थ-(१) अनागत---अप्राप्त (मनोज्ञ सांसारिक कोई भी विषयसुखभोग आदि अभक्त) नहीं हैं, क्योंकि अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करने वाली आत्मा के लिए कुछ भी अभुक्त नहीं है। सब कुछ पहले प्राप्त हो (भोगा जा चुका है। पदार्थ या भोग की प्राप्ति के लिए घर में रहना आवश्यक नहीं है / (2) जहाँ मृत्यु की प्रागति—पहुँच-न हो, ऐसा कोई स्थान नहीं है / (3) प्रागतिरहित (अनागत) कोई भी नहीं है, जरा, मरण आदि दुःखसमूह सब आगतिमान् है / क्योंकि संसारी जीवों के लिए ये अटल हैं, अनिवार्य हैं।' विणइत्तु राग-राग का अर्थ यहाँ प्रसंगवश स्वजनों के प्रति आसक्ति है। वास्तव में कौन किसका स्वजन है और कौन किसका स्वजन नहीं है ? अागम में कहा है --(प्र०) 'भंते ! क्या यह जीव इस जन्म से पूर्व माता, पिता, भाई, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू, पत्नी के रूप में तथा मित्र-स्वजन-सम्बन्धी से परिचित के रूप में उत्पन्न हुआ है ? ' (उ०) हाँ, गौतम ! (एक बार नहीं), बार-बार यहाँ तक कि अनन्तवार तथारूप में उत्पन्न हुआ है। प्रबुद्ध पुरोहित, अपनी पत्नी से 29. पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो वासिटि ! भिक्खायरियाइ कालो। साहाहि रुक्खो लहए समाहि छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणु॥ [26] (प्रबुद्ध पुरोहित)---हे वाशिष्ठि ! पुत्रों से विहीन (इस घर में) मेरा निवास नहीं हो सकता। (अब मेरा) भिक्षाचर्या का काल (या गया) है। वक्ष शाखाओं से ही शोभा पाता है (समाधि को प्राप्त होता है) / शाखाओं के कट जाने पर वही वृक्ष ठेठ कहलाने लगता है। 30. पंखाविहूणो ब्व जहेह पक्खी भिच्चा विहूणो व्व रणे नरिन्दो / विवन्नसारो वणिओ व पोए पहीणपुत्तो मितहा अहं पि // [30] इस लोक में जैसे पांखों से रहित पक्षी तथा रणक्षेत्र में भृत्यों-सुभटों के बिना राजा, एवं (टूटे) जलपोत (जहाज) पर के स्वर्णादि द्रव्य नष्ट हो जाने पर जैसे वणिक असहाय होकर दुःख पाता है, वैसे ही मैं भी पुत्रों के बिना (असहाय होकर दुःखी) हूँ। 31. सुसंभिया कामगुणा इमे ते संपिण्डिया अग्गरसप्पभूया। भुजामु ता कामगुणे पगामं पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं // [31] (पुरोहित-पत्नी)—तुम्हारे (घर में) सुसंस्कृत और सम्यक् रूप से संगृहीत प्रधान शृगारादि ये रसमय जो कामभोग हमें प्राप्त हैं, इन कामभोगों को अभी हम खूब भोग लें, उसके पश्चात् हम मुनिधर्म के प्रधानमार्ग पर चलेंगे। __32, भुत्ता रसा भोइ ! जहाइ गे वओ न जीवियहा पजहामि भोए। लाभं अलाभं च सुहं च दुक्खं संचिक्खमाणो चरिस्सामि मोणं॥ 1. बृहदवत्ति, पत्र 404 2. (क) वही, पत्र 405 (ख) "अयं णं मंते ! जीवे एगमेगस्स जीवस्स माइत्ताए (पियत्ताए) भाइत्ताए, पुत्तत्ताए धूयत्ताए. सुण्हत्साए, भज्जत्ताए सुहि-सयण-संबंध-संयुयत्ताए उववष्णपुटवे ?, हंता गोयमा ! अति अदुवा अणंतखुत्तो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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