SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 232] [उत्तराध्ययनसूत्र है ? यह प्राचारांग आदि में स्पष्ट कहा गया है।' कुमारों द्वारा प्रतिवाद आत्मा को असत् बताने का खण्डन करते हुए कुमारों ने कहा'आत्मा चर्मचक्षुओं से नहीं दिखती, इतने मात्र से उसका अस्तित्व न मानना युक्तिसंगत नहीं। इन्द्रियों के द्वारा मूर्त द्रव्यों को ही जाना जा सकता है, अमूर्त को नहीं। आत्मा अमूर्त है, इसलिए वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है / अतः कुमारों ने इस गाथा द्वारा 4 तथ्यों का निरूपण कर दिया–(१) आत्मा है, (2) वह अमूर्त होने से नित्य है, (3) अध्यात्मदोष—(प्रात्मा में होने वाले मिथ्यात्य, राग-द्वेष आदि अान्तरिक दोष) के कारण कर्मबन्ध होता है और (4) कर्मबन्ध के कारण वह बारबार जन्म-मरण करती है / नो इन्दियगेज्झ० : दो अर्थ-(१) णि में नोइन्द्रिय एक शब्द मान कर अर्थ किया है- अमूर्त भावमन द्वारा ग्राह्य है, (2) बृहद्वृत्ति में नो और इन्द्रिय को पृथक्-पृथक् मान कर अर्थ किया है-अमूर्त वस्तु इन्द्रियग्राह्य नहीं है / धम्म-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप धर्म / ओरज्झमाणा परिरक्खयंता-पिता के द्वारा अवरुद्ध-घर से बाहर जाने से रोके गए थे। अथवा साधुओं के दर्शन से रोके गए थे। घर में ही रखे गए थे। या बाहर न निकलने पाएँ ऐसे कड़े पहरे में रखे गए थे। मच्चणाऽभाहओ लोओ-मृत्यु की सर्वत्र निराबाध गति है, इसलिए यह विश्व मृत्यु द्वारा पीड़ित है। अमोहा : अमोघ–अमोघा का यों तो अर्थ होता है-अव्यर्थ, अचुक / परन्तु प्रस्तुत गाथा में अमोघा का प्रयोग 'रात्रि' के अर्थ में किया गया है, उसका कारण यह है कि लोकोक्ति के अनुसार मृत्यु को कालरात्रि कहा जाता है / बृहद्वत्ति में उपलक्षण से दिन का भी ग्रहण किया गया है। दुहओ-यहाँ दुहओ का अर्थ है-तुम दोनों और हम (माता-पिता) दोनों। पच्छा–पश्चात् यहाँ पश्चिम अवस्था-बुढ़ापे में मुनि बनने का संकेत है / इससे वैदिकधर्म की पाश्रमव्यवस्था भी सूचित होती है। 1. (क) बृहदवृत्ति, पत्र 401-402 'प्रात्मास्तित्वमूलत्वात् सकलधर्मानुष्ठानस्य तन्निराकरणायाह पुरोहितः / ' (ख) प्राचारांग 1 / 4 / 4 / 46 'जस्स नस्थि पुरा पच्छा, मझे तस्स कओ सिया ?' 2. (क) अध्यात्मशब्देन आत्मस्था मिथ्यात्वादय इहोच्यन्ते। -बहत्ति , पत्र 402 (ख) 'कोह च माणं च तहेव मायं लोभं च उत्थं अज्झत्थदोसा।' 3. (क) 'नोइन्द्रियं मनः। --उत्तरा. चणि, पृ. 226 (ख) नो इति प्रतिषेधे, इन्द्रियः श्रोत्रादिभिर्माह्यः-संवेद्यः इन्द्रियग्राह्यः। --बृहद्वत्ति, पत्र 402 4. (क) उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र 403 (ख) उत्तरा. प्रियशिनीटीका, भा. 2, पृ. 841 5. (क) उत्तरा. चूणि, पृ. 227 (ख) बुहद्वृत्ति, पत्र 403 6. (क) वही, पत्र 404 (ख) उत्तरा. चूणि, पृ. 227 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy