________________ चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय] [231 पुत्र उत्पन्न करने से ही स्वर्ग प्राप्त होता तो डुली (कच्छपी), गोह, सूअरी तथा मर्गे आदि अनेक पुत्रों वाले पशुपक्षियों को सर्वप्रथम स्वर्ग मिल जाना चाहिए, तत्पश्चात् अन्य लोगों को। प्रस्तुत गाथा (सं.१२) में वेद पढ़ कर आदि तीन बातों का समाधान दिया गया है, चौथी बात थी-भोग-भोगकर बाद में संन्यास लेना-उसके उत्तर में 13-14-15 वी गाथा है / ' अन्नपमत्ते धणमेसमाणे ०—एक अोर कामनाओं से अतृप्त व्यक्ति विषयसुखों की प्राप्ति के लिए इधर-उधर मारा-मारा फिरता है, दूसरी ओर वह स्वजन आदि अन्य लोगों के लिए अथवा अन्न (आहार) के लिए आसक्तचित्त होकर विविध उपायों से धन के पीछे पागल बना रहता है, ऐसे व्यक्ति के मनोरथ पूर्ण नहीं होते और बीच में बुढ़ापा और मृत्यु उसे धर दबाते हैं। वह धर्म में उद्यम किये विना यों ही खाली हाथ चला जाता है / धणेण किं धम्मधुराहिगारे०- इस गाथा का प्राशय यह है कि मुनिधर्म के आचरण में, भिक्षाचरी में, सम्यग्दर्शनादि गुणों के धारण करने में, अथवा संयम-पालन में धन की कोई आवश्यकता नहीं रहती, स्वजनों की भी आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि महाव्रतादि का पालन व्यक्तिगत है / और न ही कामभोगों की इनमें अपेक्षा है, बल्कि कामभोग, धन या स्वजन संयम में बाधक हैं / इसीलिए वेद में कहा है-"न प्रजया, न धनेन, त्यागेनैकेनामृतत्वमानशुः / " अर्थात्-न सन्तान से और न धन से, किन्तु एकमात्र त्याग से ही लोगों ने अमृतत्व प्राप्त किया है। जहा य अग्गो० : गाथा का तात्पर्य इस गाथा में भगु पुरोहित द्वारा अपने पुत्रों को प्रात्मा के अस्तित्व से इन्कार करके संशय में डालने का उपक्रम किया गया है। क्योंकि समस्त धर्मसाधनाओं का मूल आत्मा है। आत्मा को शुद्ध और विकसित करने के लिए ही मुनिधर्म की साधना है / अतः पुरोहित का प्राशय था कि आत्मा के अस्तित्व का ही निषेध कर दिया जाए तो मुनि बनने की उनकी भावना स्वतः समाप्त हो जाएगी। यहाँ असद्वादियों का मत प्रस्तुत किया गया है, जिसमें प्रात्मा को उत्पत्ति से पूर्व 'असत्' माना जाता है। मद्य की तरह कारणसामग्री मिलने पर वह उत्पन्न एवं विनष्ट हो जाती है। अवस्थित नहीं रहती, अर्थात् जन्मान्तर में नहीं जाती। नास्तिक लोग आत्मा को 'असत्' इसलिए मानते हैं कि जन्म से पहले उसका कोई अस्तित्व नहीं होता, वे अनवस्थित इसलिए मानते हैं कि मृत्यु के पश्चात् उसका अस्तित्व नहीं रहता। तात्पर्य यह है नास्तिकों के मत में अात्मा न तो शरीर में प्रवेश करते समय दृष्टिगोचर होती है, न ही शरीर छूटते समय, अतएव आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वस्तुतः सर्वथा असत की उत्पत्ति नहीं होती। उत्पन्न वही होता है जो पहले भी हो और पीछे भी / जो पहले भी नहीं होता, पीछे भी नहीं होता, वह बीच में कैसे हो सकता - - - 1. बृहद्वत्ति, पत्र 400 यदि पुत्राद् भवेत्स्वर्गो, दानधर्मो न विद्यते। मुषितस्तत्र लोकोऽयं, दानधर्मो निरर्थकः // 1 // बहुपुत्रा दुली गोधा, ताम्रचूडस्तथैव च / तेषां च प्रथमः स्वर्गः पश्चाल्लोको गमिष्यति // 2 // 2. बृहदवत्ति, पत्र 400 6. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 401 (ख) वेद, उपनिषद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org