________________ 230] [उत्तराध्ययनसूत्र अहिज्ज बेए० गाथा की व्याख्या--भृगु पुरोहित का यह कथन अपने दोनों विरक्त पुत्रों को गृहस्थाश्रम में रहने का अनुरोध करते हुए वैदिक धर्म की परम्परा की दृष्टि से है। इस मन्तव्य का समर्थन ब्राह्मण, धर्मसूत्र एवं स्मृतियों में मिलता है। बोधायन धर्मसूत्र के अनुसार ब्राह्मण जन्म से ही तीन ऋणों को साथ लेकर उत्पन्न होता है, यथा---ऋषि ऋण, पितृऋण और देवऋण / ऋषिऋणवेदाध्ययन व स्वाध्याय के द्वारा, पितृऋण---गृहस्थाश्रम स्वीकार करके सन्तानोत्पत्ति द्वारा और देवऋण-यज्ञ-यागादि के द्वारा चुकाया जाता है। इन ऋणों को चुकाने के लिए यज्ञादिपूर्वक गृहस्थाश्रम का प्राश्रय करने वाला मनुष्य ब्रह्मलोक में पहुँचता है, किन्तु इसे छोड़ कर यानी वेदों को पढ़े विना, पुत्रों को उत्पन्न किये विना और यज्ञ किये विना, जो ब्राह्मण मोक्ष या ब्रह्मचर्य या संन्यास की इच्छा करता है या प्रशंसा करता है वह नरक में जाता है या धूल में मिल जाता है / महाभारत में भी ब्राह्मण के लिए इसी विधान की पुष्टि मिलती है। प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'अहिज्ज वेए' से ब्रह्मचर्याश्रम स्वीकार करने का तथा परिविस्स विप्पे इत्यादि शेष पदों से गृहस्थाश्रम स्वीकार सूचित होता है। आरण्णमा मुणी ऐतरेय, कौषीतकी, तैत्तिरीय एवं बृहदारण्यक आदि ब्राह्मणग्रन्थ या उपनिषद् आरण्यक कहलाते हैं / इनमें वर्णित विषयों के अध्ययन के लिए अरण्य का एकान्तवास स्वीकार किया जाता था, इस दृष्टि से पारण्यक का अर्थ आरण्यकव्रतधारी किया गया है / इस गाथा में प्रयुक्त इन दोनों पदों के दो अर्थ बृहद्वृत्ति में किये गए हैं-(१) आरण्यकव्रतधारी मुनि--तपस्वी होना। (2) आरण्यक शब्द से वानप्रस्थाश्रम और मुनि शब्द से संन्यासाश्रम ये दो अर्थ सूचित होते हैं।' या अहीया न भवंति ताणं-ऋग्वेद आदि वेदशास्त्रों के अध्ययन मात्र से किसी की दुर्गति से रक्षा नहीं हो सकती / कहा भी है-हे युधिष्ठिर जो ब्राह्मण सिर्फ वेद पढ़ा हुआ है, वह अकारण है, क्योंकि अगर वेद पढ़ने मात्र से आत्मरक्षा हो जाती तो जिसे शील रुचिकर नहीं है, ऐसा दुःशील भी वेद पढ़ता है। भुत्ता दिआo-.-भोजन कराए हुए ब्राह्मण कैसे तमस्तम में ले जाते हैं ? इसका रहस्य यह है कि जो ब्राह्मण वैडालिक वृत्ति के हैं, जो यज्ञादि में होने वाली पशुहिंसा के उपदेशक हैं, कुमार्ग की प्ररूपणा करते हैं, ऐसे ब्राह्मणों की प्रेरणा से व्यक्ति महारम्भ करके तथा पशुवध करके घोर नरक के मेहमान बनते हैं। क्योंकि पंचेन्द्रियवध नरक का कारण है। इस दृष्टि से कहा गया है कि जो ऐसे वैडालिक ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, उन्हें वैसे अनाचारी ब्राह्मण तमस्तम नामक सप्तम नरक में जाने के कारण बनते हैं। अथवा तमस्तम का अर्थ अज्ञान-अन्धविश्वास आदि घोर अन्धकार है, अतः ऐसे दुःशील ब्राह्मण यजमान को अज्ञान-अन्धविश्वास रूपी अन्धकार में ले जाते हैं / जाया य पुत्ता न हवंति ताणं-वास्तव में पुत्र किसी भी माता-पिता को नरकादि गतियों में जाने से बचा नहीं सकते / उनके ही धर्मग्रन्थों में कहा है---यदि पुत्रों के द्वारा पिण्डदान से ही स्वर्ग मिल जाता हो तो फिर दान आदि धर्मों का प्राचरण व्यर्थ हो जाएगा। दान के लिए फिर धनधान्य का व्यय करके घर खाली करने की क्या जरूरत है ? परन्तु ऐसी बात युक्तिविरुद्ध है। यदि 1. (क) बौधायन धर्मसूत्र 216 / 11 / 33-34 (ख) मनुस्मृति 33131, 186-187 (ग) महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्म अ. 277 (घ) बृहद्वृत्ति, पत्र 399 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org