SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय [229 [25] जो-जो रात्रि व्यतीत हो रही है, वह फिर कभी वापिस लौट कर नहीं आती। धर्म करने वाले व्यक्ति की रात्रियाँ सफल होती हैं। 26. एगनो संवसित्ताणं दुहनो सम्मत्तसंजुया। पच्छा जाया ! गमिस्सामो भिक्खमाणा कुले कुले // [26] (पिता) पुत्रो! पहले हम सब (तुम दोनों और हम दोनों) एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों से युक्त हों (अर्थात्-गृहस्थधर्म का आचरण करें) और पश्चात् ढलती उम्र में दीक्षित हो कर घर-घर से भिक्षा ग्रहण करते हुए विचरेंगे। 27. जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं जस्स वऽस्थि पलायणं / जो जाणे न मरिस्सामि सो हु कंखे सुए सिया // [27] (पुत्र)-(पिताजी ! ) जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री हो, अथवा जो मृत्यु आने पर भाग कर बच सकता हो, या जो यह जानता है कि मैं कभी मरूंगा ही नहीं, वही सोच सकता है कि (माज नहीं) कल धर्माचरण कर लूगा। 28. अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो जहिं पवना न पुणम्भवामो। अणागयं नेव य अस्थि किंचि सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं // [28] (अतः) हम तो आज ही राग को दूर करके, श्रद्धा से सक्षम हो कर मुनिधर्म को अंगीकार करेंगे, जिसकी शरण पा कर इस संसार में फिर जन्म न लेना पड़े। कोई भी भोग हमारे लिए अनागत (-अप्राप्त-अभुक्त) नहीं है; (क्योंकि वे अनन्त बार भोगे जा चुके हैं।) विवेचन मुणोण-दोनों कुमारों के लिये यहाँ 'मुनि' शब्द का प्रयोग भावमुनि की अपेक्षा से है / अतः यहाँ मुनि शब्द का अर्थ मुनिभाव को स्वीकृत-भावमुनि समझना चाहिए। तवस्स वाघायकर अनशनादि बारह प्रकार के तप तथा उपलक्षण से सद्धर्माचरण में विघ्नकारक-बाधक / ' न होई असुयाण लोगो : व्याख्या-वैदिक धर्मग्रन्थों का यह मन्तव्य है कि जिसके पुत्र नहीं होता, उसकी सद्गति नहीं होती, उसका परलोक बिगड़ जाता है, क्योंकि पुत्र के बिना पिण्डदान आदि देने वाला कोई नहीं होता, इसलिए अपुत्र को सद्गति या उत्तम परलोक-प्राप्ति नहीं होती। जैसा कि कहा है "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च / तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चात् धर्म समाचरेत् // " अर्थात्-पुत्रहीन की सद्गति नहीं होती है, स्वर्ग तो किसी भी हालत में नहीं मिलता। इसलिए पहले पुत्र का मुख देख कर फिर संन्यासादि धर्म का प्राचरण करो।' 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 398 2. (क) 'अनपत्यस्य लोका न सन्ति'-वेद (ख) 'पुत्रेण जायते लोकः / ' (ग) 'नापुत्रस्य लोकोऽस्ति।' -ऐतरेय ब्राह्मण 7 / 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy