________________ 228] [उत्तराध्ययनसूत्र . 19. नो इन्दियग्गेज्ज्ञ अमुत्तभावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो। अज्झत्थहेउं निययऽस्स बन्धो संसारहेउं च वयन्ति बन्धं // [16] (पुत्र)--(पिता !) अात्मा अमूर्त है, वह इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है (जाना नहीं जा सकता) और जो अमूर्त होता है, वह नित्य होता है। आत्मा के आन्तरिक रागादि दोष ही निश्चितरूप से उसके बन्ध के कारण हैं और बन्ध को ही (ज्ञानो पुरुष) संसार का हेतु कहते हैं। 20. जहा क्यं धम्ममजाणमा णा पावं पुरा कम्ममकासि मोहा। प्रोरुज्झमाणा परिरक्खियन्ता तं नेव भुज्जो वि समायरामो // [20] जैसे पहले धर्म को नहीं जानते हुए तथा आपके द्वारा घर में अवरुद्ध होने (रोके जाने) से एवं चारों ओर से बचाने पर (घर से नहीं निकलने देने) से हम मोहवश पापकर्म करते रहे; परन्तु अब हम पुनः उस पापकर्म का आचरण नहीं करेंगे। 21. अब्भाहयंमि लोगंमि सवओ परिवारिए। अमोहाहि पडन्तीहि गिहंसि न रइं लभे / / [21] यह लोक (जबकि) आहत (पीड़ित) है, चारों ओर से घिरा हुआ है, अमोघा पाती जा रही है; (ऐसी स्थिति में) हम (अब) घर (संसार) में सुख नहीं पा रहे हैं। (अतः हमें अब अनगार बनने दो)। 22. केण अब्भाहओ लोगो ? केण वा परिवारिओ ? का वा अमोहा वुत्ता ? जाया ! चितावरो हुमि / / [22] (पिता)—पुत्रो! यह लोक किसके द्वारा पाहत (पीडित) है ? किससे घिरा हुआ है ? अथवा अमोघा किसे कहते हैं ? यह जानने के लिए मैं चिन्तातुर हूँ। 23. मच्चुणाऽभाहओ लोगो जराए परिवारिश्रो। अमोहा रयणी कुत्ता एवं ताय ! वियाणह // [23] (पुत्र)---पिताजी ! आप यह निश्चित जान लें कि यह लोक मृत्यु से आहत है तथा वृद्धावस्था से घिरा हुआ है और रात्रि (रात और दिन में समय-चक्र को गति) को अमोघा (अचूक रूप से सतत गतिशील) कहा गया है। 24. जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स अफला जन्ति राइओ॥ [24] जो जो रात्रि (उपलक्षण से दिन–समय) व्यतीत हो रही है, वह लौट कर नहीं पाती। अधर्म करने वाले की रात्रियाँ निष्फल व्यतीत हो रही हैं। 25. जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई। धम्मं च कुणमाणस्स सफला जन्ति राइप्रो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org