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________________ चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय] [227 13. खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा / संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्थाण उ कामभोगा॥ [13] ये कामभोग क्षणमात्र के लिए सुखदायी होते हैं, किन्तु फिर चिरकाल तक दुःख देते हैं / अतः ये अधिक दुःख और अल्प (अर्थात्-तुच्छ) सुख देते हैं / ये संसार से मुक्त होने में विपक्षभूत (बाधक) हैं और अनर्थों की खान हैं। 14. परिव्ययन्ते अणियत्तकामे अहो य राम्रो परितप्पमाणे / अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे पप्पोति मच्चु पुरिसे जरं च // [14] जो काम से निवृत्त नहीं है, वह (अतृप्ति की ज्वाला से संतप्त होता हुपा) दिन-रात भटकता फिरता है / दूसरों (स्वजनों) के लिए प्रमत्त (आसक्तचित्त) होकर (विविध उपायों से धन की खोज में लगा हुआ वह पुरुष (एकदिन) जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है / 15. इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि इमं च मे किच्च इमं प्रकिच्चं / तं एवमेवं लालप्पमाणं हरा हरति त्ति कहं पमाए ? // [15] यह मेरा है, और यह मेरा नहीं है; (तथा) यह मुझे करना है और यह नहीं करना है; इस प्रकार व्यर्थ की बकवास (लपलप) करने वाले व्यक्ति को प्रायुष्य का अपहरण करने वाले दिन और रात (काल) उठा ले जाते हैं / ऐसी स्थिति में प्रमाद करना कैसे उचित है ? 16. धणं पभूयं सह इत्थियाहिं सयणा तहा कामगुणा पगामा / तवं कए तप्पइ जस्स लोगो तं सव्व साहीणमिहेव तुम्भं // [16] (पिता)-जिसकी प्राप्ति के लिए लोग तप करते हैं; वह प्रचुर धन है, स्त्रियाँ हैं, माता-पिता आदि स्वजन भी हैं तथा इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय-भोग भी हैं; ये सब तुम्हें यहीं स्वाधीनरूप से प्राप्त हैं / (फिर परलोक के इन सुखों के लिए तुम क्यों भिक्षु बनना चाहते हो ?) 17. धणेण किं धम्मधुराहिगारे सयणेण वा कामगुणेहि चेव / समणा भविस्सामु गुणोहधारी बहिविहारा अभिगम्म मिक्खं // [17] (पुत्र)—(दशविध श्रमण-) धर्म की धुरा को वहन करने के अधिकार (को पाने) में धन से, स्वजन से या कामगुणों (इन्द्रियविषयों) से हमें क्या प्रयोजन है ? हम तो शुद्ध भिक्षा का आश्रय लेकर गुण-समूह के धारक अप्रतिबद्धविहारी श्रमण बनेंगे। (इसमें हमें धन आदि की आवश्यकता ही नहीं रहेगी / ) 18. जहा य अग्गी अरणीउऽसन्तो खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु / एमेव जाया! सरीरंसि सत्ता संमुच्छई नासइ नावचिठे। [18] (पिता)—पुत्रो ! जैसे अरणि के काष्ठ में से अग्नि, दूध में से घी, तिलों में से तेल, (पहले असत्) विद्यमान न होते हुए भी उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शरीर में से जीव (भी पहले) असत् (था, फिर) पैदा हो जाता है और (शरीर के नाश के साथ) नष्ट हो जाता है / फिर जीव का कुछ भी अस्तित्व नहीं रहता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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