________________ 226] [उत्तराध्ययनसून इमं विहारं-'इस विहार' से आशय है-इस प्रत्यक्ष दृश्यमान मनुष्यजीवन (नरभव) में अवस्थान। ___ आमंतयामो : तात्पर्य --आमंत्रण कर रहे--पूछ रहे हैं, यह अर्थ होते हुए भी आशय हैअनुमति मांग रहे हैं।" पुरोहित और उसके पुत्रों का परस्पर संवाद 8. अह तायगो तत्थ मुणीण तेसि तवस्स वाघायकरं क्यासी। इमं वयं वेयवित्रो वयन्ति जहा न होई असुयाण लोगो॥ [8] यह (पुत्रों के द्वारा विरक्ति की बात) सुन कर पिता ने उस अवसर पर उन कुमारमुनियों के तप में बाधा उत्पन्न करने वाली यह बात कही-'पुत्रो ! वेदों के ज्ञाता यह वचन कहते हैं किनिपूते की-जिनके पुत्र नहीं होता, उनकी—(उत्तम) गति (परलोक) नहीं होती है।' 9. अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे पुत्ते पडिठ्ठप्प गिहंसि जाया ! भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं आरण्णगा होह मुणो पसत्था / / [6] (इसलिए) हे पुत्रो ! (पहले) वेदों का अध्ययन करके, ब्राह्मणों को भोजन करा कर, स्त्रियों के साथ भोग भोगो और फिर पुत्रों को घर का भार सौंप कर आरण्यक (अरण्यवासी) प्रशस्त मुनि बनना। 10. सोयग्गिणा आयगुणिन्धणेणं मोहाणिला पज्जलणाहिएणं / संतत्तभावं परितप्पमाणं लालप्पमाणं बहुहा बहुं च // [10] (इसके पश्चात्) जिसका अन्तःकरण अपने रागादिगुणरूप इन्धन (जलावन) से एवं मोहरूपी पवन से अधिकाधिक प्रज्वलित तथा शोकाग्नि से संतप्त एवं परितप्त हो गया था और जो मोहग्रस्त हो कर अनेक प्रकार से अत्यधिक दीनहीन वचन बोल रहा था 11. पुरोहियं तं कम सोऽणुणन्तं निमंतयन्तं च सुए धणेणं / जहक्कम कामगुणेहि चेव कुमारगा ते पसमिक्ख वक्कं // [11] जो एक के बाद एक बार-बार अनुनय कर रहा था तथा जो अपने दोनों पुत्रों को धन का और क्रमप्राप्त कामभोगों का निमंत्रण दे रहा था; उस (अपने पिता) पुरोहित (भृगु नामक विष) को दोनों कुमारों ने भली भांति सोच-विचार कर ये वाक्य कहे 12. वेया ग्रहीया न भवन्ति ताणं भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं / जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं को णाम ते अणुमन्नेज्ज एयं // [12] (पुत्र)-अधीत वेद अर्थात वेदों का अध्ययन त्राण (आत्मरक्षक) नहीं होता / (यज्ञ-यागादि के रूप में पशुवध के उपदेशक) द्विज (ब्राह्मण) भी भोजन कराने पर तमस्तम (घोर अन्धकार) में ले जाते हैं। अंगजात (ौरस) पुत्र भी त्राण (शरण) रूप नहीं होते। अतः आपके इस (पूर्वोक्त) कथन का कौन अनुमोदन करेगा ! 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 397-395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org