________________ चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय] [225 विरक्त पुरोहितकुमारों को पिता से दीक्षा की अनुमति 4. जाई-जरा-मच्चुभयाभिभूया बहि विहाराभिनिविट्ठचित्ता / ___संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा बठूण ते कामगुणे विरत्ता॥ 5. पियपुत्तगा दोन्नि वि माहणस्स सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स। सरित्तु पोराणिय तत्थ जाई तहा सुचिण्णं तव-संजमं च // [4-5] स्वकर्मशील (ब्राह्मण के योग्य यजन-याजन आदि अनुष्ठान में निरत) पुरोहित के दोनों प्रियपुत्रों ने एकबार मुनियों को देखा तो उन्हें अपने पूर्वजन्म का तथा उस जन्म में सम्यक्रूप से पाचरित तप और संयम का स्मरण हो गया। (फलतः) वे दोनों जन्म, जरा और मृत्यु के भय से अभिभूत हुए। उनका अन्तःकरण बहिविहार, अर्थात् मोक्ष की ओर आकृष्ट हो गया / (अतः) वे (दोनों) संसारचक्र से विमुक्त होने के लिए (शब्दादि) कामगुणों से विरक्त हो गए / 6. ते कामभोगेसु असज्जमाणा माणुस्सएसुजे यावि दिवा। मोक्खाभिकंखी अभिजायसड्ढा तायं उवागम्म इमं उदाहु॥ [6] वे दोनों पुरोहित पुत्र मनुष्य तथा देवसम्बन्धी कामभोगों से अनासक्त हो गए। मोक्ष के अभिलाषी और श्रद्धा (तत्त्वरुचि) संपन्न उन दोनों पुत्रों ने पिता के पास आकर इस प्रकार कहा-- 7. असासयं द? इमं विहारं बहुअन्तरायं न य दोहमाउं / तम्हा गिहंसि न रइं लहामो आमन्तयामो चरिस्सामु मोणं // [7] इस विहार (मनुष्य जीवन के रूप में अवस्थान) को हमने अशाश्वत (अनित्य =क्षणिक) देख (जान) लिया। (साथ ही यह) अनेक विघ्न-बाधाओं से परिपूर्ण है और मनुष्य आयु भी दीर्घ (लम्बी) नहीं है। इसलिए हमें अब घर में कोई प्रानन्द नहीं मिल रहा है। अत: अब मुनिभाव (संयम) का आचरण (अंगीकार) करने के लिए आप से हम अनुमति चाहते हैं / विवेचन–बहि विहाराभिणिविटुचित्ता-बहिः अर्थात्-संसार से बाहर, विहार -स्थान, अर्थात् मोक्ष / मोक्ष संसार से बाहर है। उसमें उन दोनों का चित्त अभिनिविष्ट हो गया अर्थात्जम गया। कामगुणे विरत्ता-कामनाओं को उत्तेजित करने वाले शब्दादि इन्द्रियविषयों से विरक्तपराङ मुख, क्योंकि कामगुण मुक्ति के विरोधी हैं, मुक्तिमार्ग में बाधक हैं। बृहद्वत्तिकार ने कामगुणविरक्ति को ही जिनेन्द्रमार्ग की शरण में जाना बताया है। सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स–स्वकर्मशील-ब्राह्मणवर्ण के अपने कर्म--यज्ञ-याग आदि अनुष्ठान में निरत पुरोहित के शान्तिकर्ता के / सुचिण्णं—यह तप और संयम का विशेषण है। इसका प्राशय है कि पूर्वजन्म में उन्होंने जो निदान आदि से रहित तप, संयम का आचरण किया था, उसका स्मरण हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org