________________ 214] [उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन-चित्र और सम्भूत का समागम प्रस्तुत गाथा में चित्र और सम्भूत पूर्वजन्म के नाम हैं / इस जन्म में उनका समागम क्रमशः श्रेष्ठिपुत्र गुणसार (मुनि) के रूप में तथा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में ब्रह्मदत्त चक्री के जन्मस्थान काम्पिल्यनगर में हुआ था। चित्र का जीव मुनि के रूप में काम्पिल्यपुर में आया हुआ था। उन्हीं दिनों ब्रह्मदत्त चक्री को जातिस्मरण ज्ञान से पूर्वजन्मों की स्मृति हो गई / उसने अपने पूर्वजन्म के भाई चित्र को खोजने के लिए आधी गाथा बना कर घोषणा करवा दी कि जो इसकी प्राधी गाथा की पूर्ति कर देगा, उसे मैं आधा राज्य दे दूंगा। संयोगवश उसी निमित्त से चित्र के जीव का मनि के रूप में पता लग गया / इस प्रकार पाच पूर्वजन्मों में सहोदर रहे हुए दोनों भ्राताओं का अपूर्व मिलन हुआ / इसकी पूर्ण कथा अध्ययनसार में दी गई है।' चित्र मुनि और ब्रह्मदत्त द्वारा पूर्वभवों का संस्मरण-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने पिछले भवों में सहोदर होकर साथ-साथ रहने की स्मृति दिलाते हुए कहा कि यह छठा जन्म है, जिसमें हम लोग पृथक-पृथक् कुल और देश में जन्म लेने के कारण एक दूसरे से बहुत दूर पड़ गए हैं और दूसरे के सुखदुःख में सहभागी नहीं बन सके हैं। चित्र मुनि और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का एक दूसरे की ओर खींचने का प्रयास 8. कम्मा नियाणप्पगडा तुमे राय ! विचिन्तिया। तेसि फलविवागेण विप्पओगमुवागया // [8] (मुनि)--राजन् ! तुमने निदान (ग्रासक्तिसहित भोगप्रार्थनारूप) से कृत (-उपाजित) (ज्ञानावरणीयादि) कर्मों का विशेषरूप से (आर्तध्यानपूर्वक) चिन्तन किया। उन्हीं कर्मों के फलविपाक (उदय) के कारण (अतिप्रीति वाले) हम दोनों अलग-अलग जन्मे (और बिछुड़ गए। 9. सच्चसोयप्पगडा कम्मा मए पुरा कडा। ते अज्ज परिभुजामो कि नु चित्ते वि से तहा? 18] (चक्रवर्ती)---चित्र! मैंने पूर्वजन्म में सत्य (मृषात्याग) और शौच (आत्मशुद्धि) करने वाले शुभानुष्ठानों से प्रकट शुभफलदायक कर्म किये थे। उनका फल (चक्रवर्तित्व) मैं अाज भोग रहा हूँ / क्या तुम भी उनका वैसा ही फल भोग रहे हो ? ~10. सव्वं सुचिणं सफलं नराणं कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि / ___ अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहि आया ममं पुण्णफलोववेए / [10] (मुनि)-मनुष्यों के समस्त सुचीर्ण (समाचरित सत्कर्म) सफल होते हैं। क्योंकि किये हुए कर्मों का फल भोगे विना छुटकारा नहीं है। मेरी आत्मा भी उत्तम अर्थ और कामों के द्वारा पुण्यफल से युक्त रही है। 1. बृहवृत्ति, पत्र 382 2. वही, पत्र 383 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org