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________________ तेरहवां अध्ययन : चिन-सम्भूतीय] [215 11. जाणासि संभूय ! महाणुभाग महिढियं पुण्णफलोववेयं / चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं ! इड्ढी जुई तस्स वि य प्पभूया // [11] हे सम्भूत ! (ब्रह्मदत्त का पूर्वभव के नाम से सम्बोधन) जैसे तुम अपने आपको महानुभाग-(अचिन्त्य शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिसम्पत्र एवं पुण्यफल से युक्त समझते हो, वैसे ही चित्र को (मुझे) भी समझो / राजन् ! उसके (चित्र के) पास भी प्रचुर ऋद्धि और धुति रही है। 12. महत्थरूवा वयणऽप्पभूया गाहाणुगोया नरसंघमज्झे / जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया इहऽज्जयन्ते समणो म्हि जाओ। [12] स्थविरों ने मनुष्य-समुदाय के बीच अल्प वचनों (अक्षरों) वाली किन्तु महार्थरूप (अर्थगम्भीर) गाथा गाई (कही) थी; जिसे (सुनकर) शील और गुणों से युक्त भिक्षु इस निर्ग्रन्थ धर्म में स्थिर होकर यत्न (अथवा-यत्न से अजित) करते हैं / उसे सुन कर मैं श्रमण हो गया / 13. उच्चोदए मह कक्के य बम्भे पवेइया आवसहा य रम्मा। इमं गिहं चित्तधणप्पभूयं पसाहि पंचालगुणोववेयं / [13] (चक्रवर्ती)-(१) उच्च, (2) उदय, (3) मधु, (4) कर्क और (5) ब्रह्म, ये (पांच प्रकार के) मुख्य प्रासाद तथा और भी अनेक रमणीय प्रासाद (मेरे वर्द्धकिरत्न ने) प्रकट किये (बनाये) हैं तथा यह जो पांचालदेश के अनेक गुणों (शब्दादि विषयों) की सामग्री से युक्त, आश्चर्यजनक प्रचुर धन से परिपूर्ण मेरा घर है, इसका तुम उपभोग करो। 14. नट्टेहि गीएहि य वाइएहि नारीजणाई परिवारयन्तो। भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू ! मम रोयई पन्चज्जा हु दुक्खं // [14] भिक्षु ! नाट्य, संगीत और वाद्यों के साथ नारीजनों से घिरे हुए तुम इन भोगों (भोगसामग्री) का उपभोग करो; (क्योंकि मुझे यही रुचिकर है। प्रव्रज्या तो निश्चय हो दुःखप्रद है या प्रव्रज्या तो मुझे दुःखकर प्रतीत होती है। 15. तं पुवनेहेण कयाणुरागं नराहिवं कामगुणेसु गिद्ध। धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही चित्तो इमं वयणमुदाहरित्था // [15] उस राजा (ब्रह्मदत्त) के हितानुप्रेक्षी (हितैषी) और धर्म में स्थिर चित्र मुनि ने पूर्वभव के स्नेहवश अपने प्रति अनुरागी एवं कामभोगों में लुब्ध नराधिप (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती) को यह वचन कहा 16. सव्वं विलवियं गीयं सव्वं नट विडम्बियं / ___ सवे आभरणा भारा सम्वे कामा वुहावहा / [16] (मुनि)-सब गीत (गायन) विलाप हैं, समस्त नाट्य विडम्बना से भरे हैं, सभी आभूषण भाररूप हैं और सभी कामभोग दुःखावह (दुखोत्पादक) हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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