________________ तेरहवाँ अध्ययन : चित्र-सम्भूतीय] [213 सुखानुभव के कारण सम्भूत ने चित्रमुनि के द्वारा रोके जाने पर भी ऐसा निदान कर लिया कि 'मेरी तपस्या का अगर कोई फल हो तो मुझे अगले जन्म में चक्रवर्ती पद मिले।' कंपिल्ले संभूओ पूर्वजन्म में जो सम्भूत नामक मुनि था, वह निदान के प्रभाव से पाञ्चाल मण्डल के काम्पिल्यनगर में ब्रह्मराज और चूलनी के सम्बन्ध से ब्रह्मदत्त के रूप में हुआ / ' सम्पूर्ण कथा अध्ययनसार में दी गई है। सेट्रिकुलम्मि पंक्ति का भावार्थ-प्रचर धन और बहुत बड़े परिवार से सम्पन्न होने से विशाल धनसार श्रेष्ठी के कुल में गुणसार नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ और जैनाचार्य शुभचन्द्र से श्रुतचारित्ररूप धर्म का उपदेश सुनकर मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण की। चित्र और सम्भूत का काम्पिल्यनगर में समागम और पूर्वभवों का स्मरण 3. कम्पिल्लम्मि य नयरे समागया दो वि चित्तसम्भूया। सुहदुक्खफलविवागं कहेन्ति ते एक्कमेक्कस्स // [3] काम्पिल्यनगर में चित्र और सम्भूत दोनों का समागम हुआ / वहाँ उन दोनों ने परस्पर (एक दूसरे को) सुख-दुःख रूप कर्मफल के विपाक के सम्बन्ध में वार्तालाप किया / 4. चक्कवट्टी महिड्ढोओ बम्भदत्तो महायसो। ___भायरं बहुमाणेणं इमं क्यणमब्बवी-॥ [4] महान् ऋद्धिसम्पन्न एवं महायशस्वी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने अपने (पूर्वजन्म के) भाई से इस प्रकार के वचन कहे-- 5. आसिमो मायरा दो वि अन्नमन्नवसाणुगा। अन्नमन्नमणूरत्ता अन्नमन्नहिएसिणो / [5] (ब्रह्मदत्त) (इस जन्म से पूर्व) हम दोनों भाई थे; एक दूसरे के वशवर्ती, परस्पर अनुरक्त (एक दूसरे के प्रति प्रीति वाले) एवं परस्पर हितैषी थे। 6. दासा दसणे आसी मिया कालिजरे नगे। हंसा मयंगतीरे य सोवागा कासिभूमिए / 7. देवा य देवलोगम्मि प्रासि अम्हे महिड्ढिया। इमा नो छठिया जाई अन्नमन्नेण जा विणा / / {6-7] हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर गिरि पर मृग, मृतगंगा के तट पर हंस और काशी देश में चाण्डाल थे। फिर हम दोनों सौधर्म (नामक प्रथम) देवलोक में महान ऋद्धि वाले देव थे। यह हम दोनों का छठा जन्म है, जिसमें हम एक दूसरे से पृथक्-पृथक् (वियुक्त) हो गए। 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 377 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 742 2. उत्तराध्ययन प्रियशिनीटीका, भा. 2, पृ. 743 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org