________________ बारहवां अध्ययन : हरिकेशीय] [201 चित्त वाले) बालकों ने आपकी जो अवेहलना (अवज्ञा) की है, उसके लिए क्षमा करें। क्योंकि ऋषिजन महान् प्रसाद-प्रसन्नता से युक्त होते हैं / मुनिजन कोप-परायण नहीं होते। 32. पुचि च इण्हि च अणागयं च मणप्पदोसो न मे अस्थि कोइ / जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति तम्हा हु एए निहया कुमारा। [32] (मुनि-) मेरे मन में न कोई प्रद्वेष पहले था, न अब है और न ही भविष्य में होगा / ये (तिन्दुक-वनवासी) यक्ष मेरी वैयावत्य (सेवा) करते हैं। ये कुमार उनके द्वारा ही प्रताडित किए गए हैं। 33. अत्थं च धम्मं च वियाणमाणा तुम्भे न वि कुप्पह भूइपन्ना। तुम्भं तु पाए सरणं उवेमो समागया सव्वजणेण अम्हे / / |33] (रुद्रदेव-)अर्थ और धर्म को विशेष रूप से जानने वाले भूतिप्रज्ञ श्राप क्रोध न करें। हम सब लोग मिल कर आपके चरणों की शरण स्वीकार करते हैं।" 34. अच्चेमु ते महाभाग ! न ते किंचि न अच्चिमो। भुजाहि सालिमं करं नाणावंजण-संजुयं / / [34] हे महाभाग! हम आपकी अर्चना करते हैं। आपका (चरणरज अादि) कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसकी अर्चना हम न करें। (हम आपसे विनति करते हैं कि) दही आदि अनेक प्रकार के व्यजनों से संमिश्रित एवं शालि चावलों से निष्पन्न भोजन (ग्रहण करके) उसका उपभोग कीजिए। 35. इमं च मे अत्थि पभूयमन्नं तं भुजसु अम्ह अणुग्गहट्ठा / "बाद" ति पडिच्छइ भत्तपाणं मासस्स उ पारणए महप्पा // [35] मेरी (इस यज्ञशाला में) यह प्रचुर अन्न विद्यमान है, हम पर अनुग्रह करने के लिए आप (इसे स्वीकार कर) भोजन करें। (पुरोहित के इस आग्रह पर) महान् आत्मा मुनि ने (आहार लेने की) स्वीकृति दी और एक मास के तप की धारणा करने हेतु आहार-पानी ग्रहण किया / विवेचन--विसष्णो : विषादयुक्त—ये कुमार कैसे होश में आएँगे-सचेष्ट होंगे, इस चिन्ता से व्याकुल-विषण्ण / ' खमाह : आशय--भगवन् ! क्षमा करें। क्योंकि ये बच्चे मूढ़ और अज्ञानी हैं, ये दयनीय हैं, इन पर कोप करना उचित नहीं है। कहा भी है—आत्मद्रोही, मर्यादाविहीन, मूढ और सन्मार्ग को छोड़ देने वाले तथा नरक की ज्वाला में इन्धन बनने वाले पर अनुकम्पा करनी चाहिए।' 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 367 2. प्रात्मद् हममर्यादं मूढमुज्झितसत्पथम् / सुतरामनुकम्पेत नरकाचिष्मदिन्धनम् // -बृहद्वृत्ति, पत्र 367 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org