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________________ 200] [उत्तराध्ययनसूत्र तं जणं-उन उपसर्गकर्ता छात्रजनों को। विनिवाडयंति-- : दो रूप : दो अर्थ-(१) विनिपातयन्ति-भूमि पर गिरा देते हैं, (2) विनिवारयन्ति-मुनि को मारने से रोकते हैं।' आसीविसो : दो अर्थ-(१) आशीविषलब्धि से सम्पन्न / अर्थात्-इस लब्धि से शाप और अनुग्रह करने में समर्थ हैं। (2) आशीविष सर्प जैसा / जो आशीविष सांप को छेड़ता है, वह मृत्यु को बुलाता है, इसी प्रकार जो ऐसे तपस्वी मुनि से छेड़खानी करता है, वह भी मृत्यु को आमंत्रित करता है। अगणि व पक्खंद पतंगसेणा : भावार्थ जैसे पतंगों का झड अग्नि में गिरते ही तत्काल विनष्ट हो जाता है, इसी प्रकार तुम भी इनको तपरूपी अग्नि में गिर कर नष्ट हो जानोगे।' उग्गतयो—जो एक से लेकर मासखमण आदि उपवासयोग का प्रारम्भ करके जीवनपर्यन्त उसका निर्वाह करता है, वह उग्रतपा है। प्रकम्मचिट्ठ: दो अर्थ-(१) जिनमें क्रिया करने की चेष्टा—(कर्महेतुकव्यापार) न रही हो, अर्थात्--जो मूच्छित हो गए हों, (2) जिनकी यज्ञ में इन्धन डालने आदि की चेष्टा-कर्मचेष्टा बन्द हो गई हो।५ छात्रों की दुर्दशा से व्याकुल रुद्रदेव द्वारा मुनि से क्षमायाचना तथा आहार के लिए प्रार्थना--- 30. ते पासिया खण्डिय कट्ठभूए विमणो विसण्णो अह माहणो सो। इस पसाएइ सभारियाओ हीलं च निन्दं च खमाह भन्ते ! // [30] (पूर्वोक्त दुर्दशाग्रस्त) उन छात्रों को काष्ठ की तरह निश्चेष्ट देख कर वह रुद्रदेव ब्राह्मण उदास एवं चिन्ता से व्याकुल हो कर अपनी पत्नी भद्रा को साथ लेकर उन ऋषि (हरिकेशबल मुनि) को प्रसन्न करने लगा-"भंते ! हमने आपको जो अवहेलना (अवज्ञा) और निन्दा की, उसे क्षमा करें।" 31. बालेहिं मूढेहि अयाणएहि जं होलिया तस्स खमाह भन्ते ! महप्पसाया इसिणो हवन्ति न हु मुणो कोवपरा हवन्ति // [31] 'भगवन् ! इन अज्ञानी (हिताहित विवेक से रहित) मूढ (कषाय के उदय से व्यामूढ़ 1. वृहद्वृत्ति, पत्र 365-366 : 'प्रासुरा--ग्रासुरभावान्वितत्वाद् त एव यक्षाः / ' 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 366 3. वही, पत्र 366 4. तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ. 206 5. बहदवति, पत्र 366 : अकर्मचेष्टाश्च--विद्यमानकर्महेतव्यापारतया अकर्मचेष्टा: यदा-क्रियन्त इति कर्माणि--अग्नौ समित्प्रक्षेपणादीनि तद्विषया चेष्टा कर्मचेष्टेह गह्यते / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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