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________________ 202] [उत्तराध्ययनसूत्र वेयावडियं : प्रासंगिक अर्थ-वैयावृत्य-सेवा करते हैं।' अत्यं : तात्पर्य यों तो अर्थ ज्ञेय होता है, इस कारण उसका एक अर्थ-समस्त पदार्थ हो सकता है, किन्तु यहाँ प्रसंगवश अर्थ से तात्पर्य है-शुभाशुभ कर्मविभाग अथवा राग-द्वेष का फल, या शास्त्रों का अभिधेय-प्रतिपाद्य विषय। धम्म : धर्म का अर्थ यहाँ श्रुत-चारित्ररूप धर्म, अथवा दशविध श्रमणधर्म है / वियाणमाणा : अर्थ---विशेष रूप से या विविध प्रकार से जानते हुए। भूइपन्ना : तीन अर्थ-भूतिप्रज्ञ में 'भूति' शब्द के तीन अर्थ प्राचीन आचार्यों ने माने हैं(१) मंगल (2) वृद्धि और (3) रक्षा / प्रज्ञा का अर्थ है-जिससे वस्तुतत्त्व जाने जाए, ऐसो बुद्धि / अतः भूतिप्रज्ञ के अर्थ हुए-(१) जिनकी प्रज्ञा सर्वोत्तम मंगलरूप हो, (2) सर्वश्रेष्ठ वृद्धि युक्त हो, या (3) जो बुद्धि प्राणरक्षा या प्राणिहित में प्रवृत्त हो / ' पभूयमन्नं--प्रभूत अन्न--का आशय यहाँ मालपुए, खांड के खाजे आदि समस्त प्रकार के भोज्य पदार्थ (भोजन) से है / पहले जो 'शालि धान का प्रोदन' का निरूपण था, वह समस्त भोजन में उसकी प्रधानता बताने के लिए ही था / पाहारग्रहण के बाद देवों द्वारा पंच दिव्यवृष्टि और ब्राह्मणों द्वारा मुनिमहिमा 36. तहियं गन्धोदय-पुप्फवासं दिव्वा तहि वसुहारा य वुट्ठा / __ पहयाओ दुन्दुहीओ सुरेहि आगासे अहो दाणं च धुळे / / [36] (जहाँ तपस्वी मुनि ने आहार ग्रहण किया था,) वहाँ (यज्ञशाला में) देवों ने सुगन्धित जल, पुष्प एवं दिव्य (श्रेष्ठ) वसुधारा (द्रव्य को निरन्तर धारा) की वृष्टि की और दुन्दुभियाँ बजाईं तथा आकाश में 'अहो दानम्, अहो दानम्' उद्घोष किया। 37. सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो न दोसई जाइविसेस कोई / सोवागपुत्ते हरिएस साहू जस्सेरिस्सा इड्डि महाणुभागा / / [37] (ब्राह्मण विस्मित होकर कहने लगे) तप की विशेषता-महत्ता तो प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है, जाति की कोई विशेषतानहीं दीखती। जिसकी ऐसी ऋद्धि है, महती चमत्कारी-अचिन्त्य शक्ति (महानुभाग) है, वह हरिकेश मुनि श्वपाक-(चाण्डाल) पुत्र है / (यदि जाति की विशेषता होती तो देव हमारी सेवा एवं सहायता करते, इस चाण्डालपुत्र की क्यों करते ?) विवेचन—'सक्खं खु दोसइ०' : व्याख्या--प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त उद्गार हरिकेशबल मुनि के 1. "वैयावृत्यं प्रत्यनीक-प्रतिघातरूपं कुर्वन्ति / " ~बृहद्वत्ति, पत्र 368 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 368 3. भूतिप्रज्ञा-भूतिमंगलं वृद्धी रक्षा चेति वृद्धाः। प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा / भूतिः मंगल, सर्वमंगलोतम. त्वेन, वृद्धिर्वा वृद्धि विशिष्टत्वेन, रक्षा वा प्राणिरक्षकत्वेन प्रज्ञावुद्धिर्यस्येति भूतिप्रज्ञः / -बृहद्वृत्ति, पत्र 368 4. प्रभूत-प्रचुरं अन्न-मण्डक-खण्डखाद्यादि समस्तमपि भोजनम् / यत्प्राक् पृथक् प्रोदनग्रहणं तत्तस्य सर्वान्न प्रधानत्वख्यापनार्थम् / - बृ. वृ., पत्र 369 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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