________________ बारहवाँ अध्ययन : हरिकेशीय] [ 195 13. खेत्ताणि अम्हं विइयाणि लोए जहिं पकिष्णा विरुहन्ति पुण्णा। जे माहणा जाइ-विज्जोववेया ताई तु खेताइं सुपेसलाई // [13] (रुद्रदेव-) जगत् में ऐसे क्षेत्र हमें विदित (ज्ञात) हैं, जहाँ बोये हुए बीज पूर्णरूप से उग आते हैं / जो ब्राह्मण (ब्राह्मणरूप) जाति और (चतुर्दश) विद्याओं से युक्त हैं, वे ही मनोहर (उत्तम) क्षेत्र हैं; (तेरे सरीखे शूद्रजातीय तथा चतुर्दशविद्यारहित भिक्षु उत्तम क्षेत्र नहीं हैं)। 14. कोहो य माणो य बहो य जेसि मोसं अदत्तं च परिग्गहं च / ते माहणा जाइविज्जाविहूणा ताई तु खेत्ताई सुपावयाई // [14] (यक्ष-) जिनके जीवन में क्रोध और अभिमान है, वध (हिंसा) और असत्य (मृषावाद) है, अदत्तादान (चोरी) और परिग्रह है, वे ब्राह्मण जाति और विद्या से विहीन हैं, वे क्षेत्र स्पष्टतः पापक्षेत्र हैं। 15. तुम्भेत्थ भो ! भारधरा गिराणं अटून जाणाह अहिज्ज वेए। उच्चावयाई मुणिणो चरन्ति ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई / / [15] हे ब्राह्मणो ! तुम तो इस जगत् में (केवल) वाणी (शास्त्रवाणी) का भार वहन करने वाले हो! वेदों को पढ़कर भी उनके (वास्तविक अर्थ को नहीं जानते / जो मनि ऊँच-नीचमध्यम घरों में (समभावपूर्वक) भिक्षाटन करते हैं, वे ही वास्तव में उत्तम क्षेत्र हैं। 16. अज्मावयाणं पडिकूलभासी पभाससे कि नु सगासि अम्हें / अवि एयं विणस्सउ अन्नपाणं न य णं दहामु तुम नियण्ठा ! / / [16] (रुद्रदेव.-) अध्यापकों (उपाध्यायों) के प्रतिकूल बोलने वाले निर्ग्रन्थ ! तू हमारे समक्ष क्या बकवास कर रहा है ? यह अन्न-पान भले ही सड़कर नष्ट हो जाए, परन्तु तुझे तो हम हर्गिज नहीं देंगे। 17. समिईहि मझ सुसमाहियस्स गुत्तोहि गुत्तस्स जिइन्दियस्स / जइ मे न दाहित्य अहेसणिज्ज किमज्ज जन्नाण लहित्थ लाहं ? // |17] (यक्ष-) मैं ईर्या आदि पांच समितियों से सुसमाहित हूँ, तीन गुप्तियों से गुप्त हूँ पौर जितेन्द्रिय हूँ, यदि तुम मुझे यह एषणीय (एषणाविशुद्ध) आहार नहीं दोगे, तो आज इन यज्ञों का क्या (पुण्यरूप) लाभ पानोगे ? विवेचन–रुद्रदेव-यक्ष-संवाद-प्रस्तुत सात गाथाओं में रुद्रदेव याज्ञिक और महामुनि के शरीर में प्रविष्ट यक्ष की परस्पर चर्चा है / एक प्रकार से यह ब्राह्मण और श्रमण का विवाद है। एगपक्खं–एकपक्ष : व्याख्या--यह भोजन का विशेषण है / एकपक्षीय इसलिए कहा गया है कि यह यज्ञ में निष्पन्न भोजन केवल ब्राह्मणों के लिए है / अर्थात्-यज्ञ में सुसंस्कृत भोजन ब्राह्मणजाति के अतिरिक्त अन्य किसी जाति को नहीं दिया जा सकता, विशेषतः शूद्र को तो विल्कुल नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org