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________________ 196] [ उत्तराध्ययनसूत्र दिया जा सकता। अन्नपाणं-अन्न का अर्थ है-भात आदि तथा पान का अर्थ है-द्राक्षा आदि फलों का रस या पना या कोई पेय पदार्थ / पाससाए यदि अच्छी वृष्टि हुई, तब तो ऊँचे भूभाग में फसल अच्छी होगी, अगर वर्षा कम हुई तो नीचे भूभाग में अच्छी पैदावार होगी, इस आशा से किसान ऊँची और नीची भूमि में यथावसर बीज होते हैं। एआए सद्धाए-किसान की पूर्वोक्तरूप श्रद्धा आशा के समान प्राशा रखकर भी मुझे दान दो। इसका प्राशय यह है कि चाहे आप अपने को ऊँची भूमि के समान और मुझे नीची भूमि के तुल्य समझे, फिर भी मुझे देना उचित है / आराहए पुग्णमिणं खु खेत्तं : भावार्थ-यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला क्षेत्र (मैं) ही पुण्यरूप है—शुभ है; अर्थात्---पुण्यप्राप्ति का हेतुरूप क्षेत्र है / इसो की आराधना करो। सुपेसलाइं--यों तो सुपेशल का अथ-शोभन-सुन्दर या प्रीतिकर किया गया है, किन्तु यहाँ सुपेशल का प्रासंगिक अर्थ उत्तम या पुण्यरूप ही संगत है / ' जाइविज्जाविहीणा—यक्ष ने याज्ञिक ब्राह्मण से कहा—जो ब्राह्मण क्रोधादि से युक्त हैं, वे जाति और विद्या से कोसों दूर हैं; क्योंकि जाति (वर्ण)-व्यवस्था क्रिया और कर्म के विभाग से है / जैसे कि ब्रह्मचर्य-पालन से ब्राह्मण, शिल्प के कारण शिल्पिक / किन्तु जिसमें ब्राह्मणत्व की क्रिया (आचरण) और कर्म (कर्तव्य या व्यवसाय) न हो, वे तो नाममात्र के ब्राह्मण हैं / सत्-शास्त्रों की विद्या (ज्ञान) भी उसी में मानी जाती है, जिनमें अहिंसादि पांच पवित्र व्रत हों; क्योंकि ज्ञान का फल विरति है। 1. (क) एगपक्खं नाम नाब्राह्मणेभ्यो दीयते / -उत्तरा. चूणि, पृ. 205 (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 360 "न शूद्राय मति दद्यान्नोच्छिष्टं, न हविः कृतम् / न चास्योपदिशेद धर्म, न चास्य व्रतमादिशेत् // " 2. बृहद्वत्ति, पत्र 360 : "अन्नं च-प्रोदनादि, पानं च द्राक्षापानाद्यन्नपानम् / " 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 361 4, वही, पत्र 361 5. वही, पत्र 361 6. क्रियाकर्मविभागेन हि चातुर्वण्यव्यवस्था। यत उक्तम--- "एकवर्णमिदं सर्व, पूर्वमासीद्युधिष्ठिर! क्रियाकर्मविभागेन चातुर्वयं व्यवस्थितम् // " "बाह्मणो ब्रह्मचर्येण, यथा शिल्पेन शिल्पिकः / अन्यथा नाममात्रं स्यादिन्द्रगोपककीटवत् // " "तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः / तमसः कुतोऽस्ति शक्तिदिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ?" -बृहद्वत्ति, पत्र 361 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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