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________________ 194] [उत्तराध्ययनसूत्र फिर भी प्रशमपरायण महामुनि कुछ भी नहीं बोले, वे शान्त रहे। किन्तु तिन्दुकवृक्षवासी यक्ष मुनि की तपस्या से प्रभावित होकर उनका सेवक बन गया था। उसी का विशेषण है-अनुकम्पक-मुनि के अनुकूल चेष्टा--प्रवृत्ति करने वाला / ' तिन्दुयरुक्खवासी-इस विषय में परम्परागत मत यह है कि तिन्दुक (तेंदू) का एक वन था, उसके बीच में एक बड़ा तिन्दुक-वृक्ष था, जिसमें वह यक्ष रहता था। उसी वृक्ष के नीचे एक चैत्य था, जिसमें वह महामुनि रह कर साधना करते थे। धण-पयणपरिग्गहाओ-धन का अर्थ यहाँ गाय आदि चतुष्पद पशु है, पचन-का अर्थ उपलक्षण से भोजन पकाना-पकवाना-खरीदवाना, बेचना बिकवाना है। परिग्रह का अर्थ-बृहद्वृत्तिकार ने द्रव्यादि में मूर्छा किया है, जब कि चूणिकार ने स्वर्ण आदि किया है। परपवित्तस्स-दूसरों---गृहस्थों ने अपने लिए जो प्रवृत्त-निष्पादित-बनाया है। खज्जइ भुज्जइ : दोनों का अर्थ भेद-बहत्ति के अनुसार खाजा आदि तले हुए पदार्थ 'खाद्य' कहलाते हैं और दाल-भात आदि पदार्थ भोज्य / सामान्यतया 'खाद्' और 'भुज्' दोनों धातु समानार्थक हैं, तथापि इनमें अर्थभेद है, जिसे चर्णिकार ने बताया है-खाद्य खाया जाता है और भोज्य भोगा जाता है / यज्ञशालाधिपति रुद्रदेव 11. उवक्खडं भोयण माहणाणं अत्तट्ठियं सिद्धमिहेगपक्खं / नऊ वयं एरिसमन्न-पाणं दाहामु तुझं किमिहं ठिओ सि / / [11] (रुद्रदेव-) यह भोजन (केवल) ब्राह्मणों के अपने लिए तैयार किया गया है / यह एकपक्षीय है। अतः ऐसा (यज्ञार्थ निष्पन्न) अन्न-पान हम तुझे नहीं देंगे ! (फिर) यहाँ क्यों खड़ा है ? 12. थलेसु बीयाइ ववन्ति कासगा तहेव निन्नेसु य आससाए। एयाए सद्धाए दलाह मज्झं आराहए पुग्णमिणं खु खेत्तं // [12] (भिक्षुशरीरस्थ यक्ष-) अच्छी उपज की आकांक्षा से जैसे कृषक स्थलों (उच्चभूभागों) में बीज बोते हैं, वैसे ही निम्न भूभागों में भी बोते हैं। कृषक की इस श्रद्धा (दृष्टि) से मुझे दान दो। यही (मैं ही) पुण्यक्षेत्र हूँ। इसी की आराधना करो। 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 359 (ख) उत्तरा. चूणि, पृ. 204-205 अणुकंपओ त्ति---अनु शब्दोऽनुरूपार्थे ततश्चानुरूपं कम्पते-चेष्टते इत्यनुकम्पकः / 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 359 (ख) उत्तरा. चूणि, पृ. 204-205 3. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 360 (ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. 205 4. बृहद्वत्ति, पत्र 360 5. (क) 'खाद्यते खण्डखाद्यादि, भुज्यते च भक्त-सूपादि। –बुहद्वृत्ति, पत्र 360 (ख) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 205 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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