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________________ बारहवां अध्ययन : हरिकेशीय] [193 पंसुपिसायभूए-लौकिक व्यवहार में पिशाच वह माना जाता है, जिसके दाढ़ी-मूंछ, नख और रोएँ लम्बे एवं बड़े हुए हों, शरीर धूल से भरा हो; मुनि भी शरीर के प्रति निरपेक्ष एवं धूल से भरे होने के कारण पिशाच (भूत) जैसे लगते थे।' 'संकरसं परिहरिय'-संकर का अर्थ है--तृण, धूल, राख, गोबर, कोयले आदि मिले हुए कूड़े-कर्कट का ढेर, जिसे उकरड़ी कहते हैं / वहाँ लोग उन्हीं वस्त्रों को डालते हैं, जो अनुपयोगी एवं अत्यन्त रद्दी हों। इसलिए संकरदूष्य का अर्थ हुआ-उकरड़ी से उठा कर लाया हुअा चिथड़ा / मुनि के वस्त्र भी वैसे थे, जीर्ण, शीर्ण और निकृष्ट, फैंकने योग्य / इसलिए मुनि को उन्होंने कहा था-गले में संकरदृष्य पहने हुए / कन्धा कण्ठ का पार्श्ववर्ती भाग है, इसलिए यहाँ कन्धे के लिए 'कण्ठ' शब्द का प्रयोग हुआ है / आशय यह है कि ऐसे वस्त्र मुनि के कन्धे पर डले हुए थे। जो मुनि अभिग्रहधारी होते हैं, वे अपने वस्त्रों को जहाँ जाते हैं, वहाँ साथ ही रखते हैं, उपाश्रय में छोड़ कर नहीं जाते / / विगराले---विकराल हरिकेशबल मुनि के दांत आगे बढ़े हुए थे, इस कारण उनका चेहरा विकराल लगता था। यक्ष के द्वारा मुनि का परिचयात्मक उत्तर 8. जक्खो तहि तिन्दुयरुक्खवासी अणुकम्पओ तस्स महामुणिस्स / पच्छायइत्ता नियगं सरीरं इमाइं वयणाइमुदाहरित्था--।। [8] उस समय उस महामुनि के प्रति अनुकम्पाभाव रखने वाले तिन्दुकवृक्षवासी यक्ष ने अपने शरीर को छिपा कर (महामुनि के शरीर में प्रविष्ट होकर) ऐसे वचन कहे 9. समणो अहं संजो बम्भयारी विरो धणपयणपरिग्गहाओ। परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि / / [8] मैं श्रमण हूँ, मैं संयत (संयम-निष्ठ) हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, धन, पचन (भोजनादि पकाने) और परिग्रह से विरत (निवृत्त) हूँ, मैं भिक्षाकाल में दूसरों (गृहस्थों) के द्वारा (अपने लिए) निष्पन्न आहार पाने के लिए यहाँ (यज्ञपाड़े में) आया हूँ। 10. वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जई य अन्नं पभूयं भवयाणमेयं / जाणाहि मे जायणजीविणु ति सेसावसेसं लभऊ तवस्सी। [10] यहाँ यह बहुत-सा अन्न बांटा जा रहा है, (बहुत-सा) खाया जा रहा है और (भातदाल आदि भोजन) उपभोग में लाया जा रहा है। आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि मैं याचनाजीवी (भिक्षाजीवी) हूँ। अतः भोजन के बाद बचे हुए (शेष) भोजन में से अवशिष्ट भोजन इस तपस्वी को भी मिल जाए। विवेचन-अणुकंपओ-जातिमदलिप्त ब्राह्मणों ने महामुनि का उपहास एवं अपमान किया, 1. बृहद्वत्ति, पत्र 359 2. वही, पत्र 359 3. वही, पत्र 358 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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