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________________ 192] [उत्तराध्ययनसूत्र एवं मलिन वस्त्र वाला, धूलि-धूसरित शरीर होने से भूत-सा दिखाई देने वाला, (और) गले में संकरदृष्य (कूड़े के ढेर से उठा कर लाये हुए जीर्ण एवं मलिन वस्त्र-सा) धारण किये हुए यह कौन प्रा रहा है ? 7. कयरे तुम इय प्रदंसणिज्जे काए व आसा इहमागओ सि / ___ ओमचेलगा पंसुपिसायभूया गच्छ क्खलाहि किमिह ठिओसि ? // [7] 'अरे प्रदर्शनीय ! तू कौन है रे ?, यहाँ तू किस आशा से आया है ? जीर्ण और मैले वस्त्र होने से अधनंगे तथा धूल के कारण पिशाच जैसे शरीर वाले ! चल, हट जा यहाँ से ! यहाँ क्यों खड़ा है ?' विवेचन--पंतोवहिउवगरणं-प्रान्त शब्द यहाँ जीर्ण और मलिन होने से तुच्छ–प्रसार अर्थ में है, यह उपधि और उपकरण का विशेषण है। यों तो उपधि और उपकरण ये दोनों धर्मसाधना के लिए उपकारी होने से एकार्थक हैं, तथापि उपधि का अर्थ यहाँ नित्योपयोगी वस्त्रपात्रादि रूप उपकरण-ौघिकोपधि है और उपकरण का अर्थ-संयमोपकारक रजोहरण, प्रमाणनिका आदि औपग्रहिकोपधि है।' अणारिया-अनार्य शब्द मूलतः निम्न जाति, कुल, क्षेत्र, कर्म, शिल्प आदि से सम्बन्धित था, किन्तु बाद में यह निम्न-असभ्य-आचरणसूचक बन गया। यहाँ अनार्य शब्द असभ्य, उज्जड़, अनाड़ी अथवा साधु पुरुषों के निन्दक-अशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त है / आचरणहीन ब्राह्मण-प्रस्तुत गाथा (सं. 5) में आचरणहीन ब्राह्मणों का स्वरूप बताया गया है, उनके 5 विशेषण बताये गए हैं---जातिमद से मत्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और बाल / बृहद्वृत्तिकार के अनुसार 'हम ब्राह्मण हैं, उच्च जातीय हैं, श्रेष्ठ हैं, इस प्रकार के जातिमद से वे मत्त थे, यज्ञों में पशुवध करने के कारण हिंसापरायण थे, पांचों इन्द्रियों को वश में नहीं किये हुए थे, वे पुत्रोत्पत्ति के लिए मैथुनसेवन (अब्रह्माचरण) को धर्म मानते थे तथा बालक्रीड़ा की तरह लौकिककामनावश अग्निहोत्रादि में प्रवृत्त होने से अज्ञानी (अतत्त्वज्ञ) थे। ओमचेलए—(१) चूणि के अनुसार अचेल अथवा थोड़े-से जीर्ण-शीर्ण तुच्छ वस्त्रों वाला, (2) बृहद्वृत्ति के अनुसार-हलके, गंदे एवं जीर्ण होने से असार वस्त्रों वाला। 1. (क) 'प्रान्तः-जीर्ण-मलिनत्वादिभिरसारम् / ' -बृहद्वत्ति, पत्र 358 (ख) उपधिः-नित्योपयोगी वस्त्रपात्रादिरूप प्रौघिकोपधिः, उपकरणं-संयमोपकारक रजोहरणप्रमाजि कादिकम-प्रोपग्राहकोपधिश्च / -उत्तरा. प्रियशिनीटीका, भा. 2, पृ. 576 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 358 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 576 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 358--- धर्मार्थ पुत्रकामस्य स्वदारेष्वधिकारिणः / ऋतुकाले विधानेन तत्र दोषो न विद्यते / / अपुत्रस्य गति स्ति, स्वों नैव च नैव च / तस्मात् पुनमुखं दृष्ट्वा पश्चात् स्वर्ग गमिष्यति / उक्तं च--अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेति लक्ष्यते / / 4. (क) उत्तरा. चूणि, पृ. 204 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 359 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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