________________ 178] [उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन-'अभिक्खणं कोहो'- जो बार-बार क्रोध करता है, या अभिक्षण-क्षण-क्षण में क्रोध करता है, किसी कारण से या अकारण क्रोध करता ही रहता है। पबंधं च पकुव्वइ : दो व्याख्याएँ-(१) प्रबन्ध का अर्थ है-अविच्छिन्न रूप से (लगातार) प्रवर्तन / जो अविच्छिन्नरूप से उत्कट क्रोध करता है, अर्थात् —एक बार कुपित होने पर अनेक वार समझाने, सान्त्वना देने पर भी उपशान्त नहीं होता। (2) विकथा आदि में निरन्तर रूप से प्रवृत्त रहता है। मेत्तिज्जमाणो वमइ-किसी साधक के द्वारा मित्रता का हाथ बढ़ाने पर भी जो ठुकरा देता है, मैत्री को तोड़ देता है, मैत्री करने वाले से किनाराकसी कर लेता है। इसका तात्पर्य एक व्यावहारिक उदाहरण द्वारा बृहद्वृत्तिकार ने समझाया है / जैसे-कोई साधु पात्र रंगना नहीं जानता; दूसरा साधु उससे कहता है--'मैं आपके पात्र रंग देता हूँ।' किन्तु वह सोचने लगता है कि मैं इससे पात्र रंगाऊंगा तो बदले में मुझे भी इसका कोई काम करना पड़ेगा। अतः प्रत्युपकार के डर से वह कहता है-रहने दीजिए, मुझे आपसे पात्र नहीं रंगवाना है। अथवा कोई व्यक्ति उसका कोई काम कर देता है तो भी कृतघ्नता के कारण उसका उपकार मानने को तैयार नहीं होता। पावपरिक्खेवी-आचार्य प्रादि कोई मुनिवर समिति-गुप्ति प्रादि के पालन में कहीं स्खलित हो गए तो जो दोषदर्शी बन कर उनके उक्त दोष को लेकर उछालता है, उन पर आक्षेप करता है, उन्हें बदनाम करता है / इसे ही पापपरिक्षेपी कहते हैं। ____ रहे भासइ पावर्ग---अत्यन्त प्रिय मित्र के सामने प्रिय और मधुर बोलता है, किन्तु पीठ पीछे उसकी बुराई करता है कि यह तो अमुक दोष का सेवन करता है।' पइण्णवाई : दो रूप : तीन अर्थ (1) प्रकीर्णवादी-इधर-उधर की, उटपटांग, असम्बद्ध बातें करने वाला, वस्तुतत्त्व का विचार किये बिना जो मन में पाया सो बक देता है, वह यत्किचनवादी या प्रकीर्णवादी है। (2) प्रकीर्णवादी वह भी है, जो पात्र-अपात्र की परीक्षा किये बिना ही कथञ्चित् प्राप्त श्रुत का रहस्य बता देता है / (3) प्रतिज्ञावादी-जो साधक एकान्तरूप से आग्रहशील होकर प्रतिज्ञापूर्वक बोल देता है कि 'यह ऐसा ही है। अचियत्ते : अप्रीतिकरः—जो देखने पर या बुलाने पर सर्वत्र अप्रीति ही उत्पन्न करता है / नोयावित्ति-नीचैर्वृत्तिः अर्थ और व्याख्या- बृहद्वृत्ति के अनुसार दो अर्थ--(१) नीचा या नम्र-अनुद्धत होकर व्यवहार (वर्तन) करने वाला, (2) शय्या आदि में गुरु से नीचा रहने वाला / जैसे कि दशवैकालिकसूत्र में कहा है "नीयं सेज्जं गई ठाणं, णीयं च आसणाणि य। णीयं च पायं वंदेज्जा, णीयं कुज्जा य अंजलि // " अर्थात्-विनीत शिष्य अपने गुरु से अपनी शय्या सदा नीची रखता है, चलते समय उनके 1 बृहद्वृत्ति, पत्र 346-347 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 346 (ख) उत्तरा. चूणि, पृ. 196 (ग) सुखबोधा, पत्र 168 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org