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________________ ग्यारहवां अध्ययन : बहुश्र तपूजा] [179 पीछे-पीछे चलता है, गुरु के स्थान और प्रासन से उसका स्थान और प्रासन नीचा होता है। वह नोचे झुककर गुरुचरणों में वन्दन करता है और नम्र रह कर हाथ जोड़ता है।' अचवले–अचपल : दो अर्थः--(१) प्रारम्भ किये हुए कार्य के प्रति स्थिर / अथवा (2) चार प्रकार की चपलता से रहित (1) गतिचपल -उतावला चलने वाला, (2) स्थानचपल-जो बैठा-बैठा भी हाथ-पैर हिलाता रहता है, (3) भाषाचपल-जो बोलने में चपल हो। भाषाचपल भी चार प्रकार के होते हैं-असत्प्रलापी, असभ्यप्रलापी, असमीक्ष्यप्रलापी और प्रदेशकालप्रलापी / और (4) भावचपल-प्रारम्भ किये हुए सूत्र या अर्थ को पूरा किये विना ही जो दूसरे कार्य में लग जाता है, या अन्य सूत्र, अर्थ का अध्ययन प्रारम्भ कर देता है / ___अमाई-अमायी : प्रस्तुत प्रसंग में अर्थ मनोज्ञ आहारादि प्राप्त करके गुरु आदि से छिपाना माया है। जो इस प्रकार की माया नहीं करता, वह अमायी है। अकुऊहले : दो अर्थ-(१) जो इन्द्रियों के विषयों और चामत्कारिक ऐन्द्रजालिक विद्यानों, जादू-टोना आदि को पापस्थान जान कर उनके प्रति अनुत्सुक रहता है, (2) जो साधक नाटक, तमाशा, इन्द्रजाल, जादू आदि खेल-तमाशों को देखने के लिए अनुत्सुक हो। ___ अप्पं चाऽहिक्खिबई : दो व्याख्याएँ--यहाँ अल्प शब्द के दो अर्थ सूचित किये गए हैं-(१) थोड़ा और (2) अभाव / प्रथम के अनुसार अर्थ होगा-(१) ऐसे तो वह किसी का तिरस्कार नहीं करता, किन्तु किसी अयोग्य एवं अनुत्साही व्यक्ति को धर्म में प्रेरित करते समय उसका थोडा तिरस्कार करता है, (2) दूसरे के अनुसार अर्थ होगा-जो किसी का तिरस्कार नहीं करता। रहे कल्लाण भासइ–कृतज्ञ व्यक्ति अपकारी (अत्रिय मित्र) के एक गुण को सामने रख कर उसके सौ दोषों को भुला देते हैं, जब कि कृतघ्न व्यक्ति एक दोष को सामने रख कर सौ गुणों को भुला देते हैं। अतः सुविनीत साधक न केवल मित्र के प्रति किञ्चित् अपराध होने पर कुपित नहीं होते, अमित्र-अपकारी मित्र के भी पूर्वकृत किसी एक सुकृत का स्मरण करके उसके परोक्ष में भी उसका गुणगान करते हैं / अभिजाइए-अभिजातिक-कुलीन-अभिजाति का अर्थ---कुलोनता है। जो कुलीन होता है, वह लिये हुए भार (दायित्व) को निभाता है / हिरिमं ह्रीमान् लज्जावान्-लज्जा सुविनीत का एक विशिष्ट गुण है / उसको आँखों 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 346 (ख) दशवकालिक, 9 / 2 / 17 2. अचपल :---ताऽऽरब्धकार्य प्रति अस्थिर:, अथवाऽचपलो-ति-स्थान-भाषा-भावभेदतश्चतुर्धा...। -बृहद्वृत्ति, पत्र 347 3. (क) वही, पत्र 347 (ख) उत्तरा. चूणि, पृ. 197 4. कल्याण भाषते, इदमुक्तं भवति--मित्रमिति यः प्रतिपन्नः, स यद्यप्यपकृतिशतानि विधत्ते, तथाऽप्येकमपि सुकृतमनुस्मरन् न रहस्यपि तद्दोष मुदीरयति / तथा चाह-- 'एकसुकृतेन दुष्कृतशतानि, ये नाशयन्ति ते धन्याः / न स्वेकदोषजनितो येषां कोपः, स च कृतघ्नः // --बहवति, पत्र 347 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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