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________________ ग्यारहवां अध्ययन : बहुश्रुतपूजा] [177 [6] चौदह प्रकार से व्यवहार करने वाला अविनीत कहलाता है और वह निर्वाण प्राप्त नहीं करता। 7. अभिक्खणं कोही हवइ पबन्धं च पकुव्वई। मेत्तिज्जमाणो वमइ सुयं लबू ण मज्जई // 8. अवि पावपरिक्खेवी अवि मित्तेसु कुप्पई। सुप्पियस्सावि मित्तस्स रहे भासइ पावगं / / पइण्णवाई दुहिले थद्ध लुद्ध अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते अविणोए ति बुच्चइ // [7-8-6] (1) जो बार-बार क्रोध करता है, (2) जो क्रोध को निरन्तर लम्बे समय तक बनाये रखता है, (3) जो मैत्री किये जाने पर भी उसे ठुकरा देता है, (4) जो श्रुत (शास्त्रज्ञान) प्राप्त करके अहंकार करता है, (5) जो स्खलनारूप पाप को लेकर (आचार्य आदि की) निन्दा करता है, (6) जो मित्रों पर भी क्रोध करता है, (7) जो अत्यन्त प्रिय मित्र का भी एकान्त (परोक्ष) में अवर्णवाद बोलता है, (8) जो प्रकीर्णवादी (असम्बद्धभाषी) है, (6) द्रोही है, (10) अभिमानी है, (11) रसलोलुप है, (12) जो अजितेन्द्रिय है, (13) असंविभागी है (साथी साधुओं में आहारादि का विभाग नहीं करता), (14) और अप्रीति-उत्पादक है। 20. अह पन्नरसहि ठाणेहि सुविणीए त्ति वुच्चई / नीयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले // 21. अप्पं चाहिक्खिबई पबन्धं च न कुब्बई / मेत्तिज्जमाणो भयई सुयं लद्धन मज्जई // 12. न य पावपरिवखेवी न य मित्तेसु कुप्पई। अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई // 13. कलह-डमरवज्जए बुद्ध अभिजाइए। हिरिमं पडिसंलोणे सुविणीए ति बुच्चई // [10-11-12-13] पन्द्रह कारणों से साधक सुविनीत कहलाता है—(१) जो नम्र (नीचा) होकर रहता है, (2) अचपल-(चंचल नहीं) है, (3) जो अमायी (दम्भी नहीं-निश्छल) है, (4) जो अकुतूहली (कौतुक देखने में तत्पर नहीं) है, (5) जो किसी का तिरस्कार नहीं करता, (6) जो क्रोध को लम्बे समय तक धारण किए रहता, (7) मैत्रीभाव रखने वाले के प्रति कृतज्ञता रखता है, (8) श्रुत (शास्त्रज्ञान) प्राप्त करके मद नहीं करता, (8) स्खलना होने पर जो (दूसरों की) निन्दा नहीं करता, (10) जो मित्रों पर कुपित नहीं होता, (11) अप्रिय मित्र का भी एकान्त में गुणानुवाद करता है, (12) जो वाक्कलह और मारपीट (हाथापाई) से दूर रहता है, (13) जो कुलीन होता है, (15) जो लज्जाशील होता है और (15) जो प्रतिसंलीन (अंगोपांगों का गोपन-कर्ता) होता है, ऐसा बुद्धिमान् साधक सुविनीत कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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