________________ दशम अध्ययन : द्रुमपत्रक [171 करो, अनगारधर्म पर दृढ़ रहो, (3) मित्र, बान्धव आदि के साथ पुनः आसक्तिपूर्ण सम्बन्ध जोड़ने की इच्छा मत करो, (4) इस समय तुम्हें जो न्याययुक्त मोक्षमार्ग प्राप्त हुआ है, उसी पर दृढ़ रहो, (5) कंटोले पथ को छोड़कर शुद्ध राजमार्ग पर आ गए हो तो अब दृढ़ निश्चयपूर्वक इसी मार्ग पर चलो, (6) दुर्बल भारवाहक की तरह विषममार्ग पर मत चलो, अन्यथा पश्चात्ताप करना पड़ेगा, (7) महासमुद्र के किनारे आकर क्यों ठिठक गए ? आगे बढ़ो, शीघ्र ही पार पहुंचो, (8) एक दिन अवश्य ही तुम सिद्धिलोक को प्राप्त करोगे, यह विश्वास रख कर चलो, (6) प्रबुद्ध, उपशान्त एवं संयत होकर शान्तिमार्ग को बढ़ाते हुए ग्राम-नगर में विचरण करो / ' ___'वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो' का रहस्य-यद्यपि गौतमस्वामी पदार्थों में मूच्छित नहीं थे, न विषयभोगों में उनकी आसक्ति थी, उन्हें सिर्फ भगवान् के प्रति स्नेह-अनुराग था और वह प्रशस्त राग था। वीतराग भगवान् नहीं चाहते थे कि कोई उनके प्रति स्नेहबन्धन से बद्ध रहे / अतः भगवान् ने गौतमस्वामी को उस स्नेहतन्तु को विच्छिन्न करने के उद्देश्य से उपदेश दिया हो, ऐसा प्रतीत होता है / भगवतीसूत्र में इस स्नेहबन्धन का भगवान् ने उल्लेख भी किया है। न हु जिणे अज्ज दिस्सइ, बहुमए दिस्सइ मम्गदेसिए : चार व्याख्याएँ-(१) (यद्यपि) प्राज (इस पंचमकाल में) जिन भगवान नहीं दिखाई देते, किन्तु उनके द्वारा मार्गरूप से उपदिष्ट हुआ तथा अनेक शिष्टजनों द्वारा सम्मत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग तो दीखता है, ऐसा सोचकर भविष्य में भव्यजन सम्यक्त्व को प्राप्त कर प्रमाद नहीं करेंगे। (2) अथवा भाविभव्यों को उपदेश देते हुए भगवान् गौतम से कहते हैं—जैसे मार्गोपदेशक और नगर को नहीं देखते हुए भी व्यक्ति मार्ग को देख कर मार्गोपदेशक के उपदेश से उसकी प्रापकता का निश्चय कर लेता है, वैसे ही इस पंचमकाल में जिन और मोक्ष नहीं दिखाई देते, फिर भी मार्गदेशक आचार्य आदि तो दीखते हैं। अत: मुझे नहीं देखने वाले भाविभव्यजनों को उस मार्गदेशक में भी मोक्षप्रापकता का निश्चय कर लेना चाहिए....... / (3) तीसरी पद्धति से व्याख्या हे गौतम ! तुम इस समय जिन नहीं हो, परन्तु अनेक प्राणियों द्वारा अभिमत मार्ग (जिनत्वप्राप्ति का पथ) मैंने तुम्हें बता दिया है, वह तुम्हें दिखता (ज्ञात) ही है. इसलिए जिनरूप से मेरे विद्यमान रहते मेरे द्वारा उपदिष्ट मार्ग में.... (4) चौथी व्याख्या मूलार्थ में दी गई है। वही व्याख्या अधिक संगत लगती है। अबले जह भारवाहए : इस सम्बन्ध में एक दृष्टान्त–एक व्यक्ति धन कमाने के लिए परदेश गया / वहाँ से वह सोना आदि बहुत-सा द्रव्य लेकर अपने गाँव की ओर लौट रहा था। वजन बहुत था और वह दुर्बल था / जहाँ तक सीधा-साफ मार्ग प्राया, वहाँ तक वह ठीक चलता रहा, किन्तु जहाँ ऊबड़-खाबड़ रास्ता आया, वहाँ वह घबराया और धन-गठरी वहीं फैक कर खाली हाथ घर चला प्राया। अब वह सब कुछ गंवा देने के कारण निर्धन हो गया और पछताने लगा। इसी प्रकार जो साधक प्रमादवश विषममार्ग में जाकर संयमधन को गवा देता है, उसे बाद में बहत पछताना पड़ता है।' 1. उत्त. मूलपाठ, अ. 10, गा. 28 से 36 तक 2. भगवती. 1417 3. (क) बृहबृत्ति, पत्र 341 (ख) उत्त. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 507 से 509 तक (ग) उत्तरा. (सानुवाद, मु. नथमलजी) पृ. 127 4. बृहद्वृत्ति, पत्र 341 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org