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________________ दशम अध्ययन : द्रमपत्रक] [169 च्चारणबल होने पर क्रमशः रसास्वाद के प्रति राग-द्वेष के त्याग से तथा स्वाध्याय करने, वाचना देने, उपदेश एवं प्रेरणा देने से निर्दोष और सहज धर्माचरण कर सकता है, जबकि जिह्वाबल क्षीण होने पर ये सब नहीं हो सकते / इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रियबल प्रबल हो तो शीत-उष्ण आदि परीषहों पर विजय तथा तप, संयम आदि के रूप में उत्तम धर्माचरण हो सकता है, अन्यथा इस धर्माचरण से साधक वंचित हो जाता है / इसी प्रकार जब तक सर्वबल–अर्थात-मन, वचन, काया एवं समस्त अपना-अपना कार्य करने की शक्ति विद्यमान है, तब तक साधक ध्यान, अनुप्रेक्षा, आत्मचिन्तन, स्वाध्याय, वाचना, उपदेश, भिक्षाचरी, प्रतिलेखन, तप, संयम, त्याग आदि के रूप में स्वाख्यात धर्म का आचरण कर सकता है, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार शरीर स्वस्थ न हो, दुःसाध्य व्याधियों से घिर जाए तो भी निश्चिन्तता एवं निर्विघ्नता से धर्म का आचरण नहीं हो सकता। इसलिए गौतमस्वामी से भगवान् महावीर कहते हैं कि जब तक शरीर, इन्द्रियाँ आदि स्वस्थ, सशक्त और कार्यक्षम हैं, तब तक रत्नत्रय-धर्माराधना में एक क्षण भी प्रमाद न करो।' _ 'पायंका विविहा फुसंति ते' का आशय यद्यपि श्री गौतमस्वामी के शरीर में कोई रोग, पीड़ा या व्याधि नहीं थी और न उनकी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हुई थी, तथापि भगवान् ने सम्भावना व्यक्त करके उनके आश्रय के समस्त साधकों को अप्रमाद का उपदेश दिया है।' अप्रमाद में बाधक तत्त्वों से दूर रहने का उपदेश 428. वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं / से सव्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम ! मा पमायए / [28] जिस प्रकार शरत्कालीन कुमुद (चन्द्रविकासी कमल) पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू भी अपने स्नेह को विच्छिन्न (दूर) कर / तू सभी प्रकार के स्नेह का त्याग करके गौतम ! समयमात्र का भी प्रमाद मत कर। 29. चिच्चाण धणं च भारियं पव्वइओ हि सि अणगारियं / मा वन्तं पुणो वि आइए समयं गोयम! मा पमायए॥ [26] हे गौतम ! धन और पत्नी (आदि) का परित्याग करके तुम अनगारधर्म में प्रजित (दीक्षित) हुए हो, अतः एक बार वमन किये हुए कामभोगों (सांसारिक पदार्थों) को पुनः मत पीना (सेवन करना)। (अब इस अनगारधर्म के सम्यक् अनुष्ठान में) क्षणमात्र का भी प्रमाद मत करो। 30. अवउझिय मित्तबन्धवं विउलं चेव धणोहसंचयं / __ मा तं बिइयं गवेसए समयं गोयम ! मा पमायए / [30] मित्र, बान्धव और विपुल धनराशि के संचय को छोड़कर पुनः उनकी गवेषणा (तलाश-पासक्तिपूर्ण सम्बन्ध की इच्छा) मत कर / (अंगीकृत श्रमणधर्म के पालन में) एक क्षण का भी प्रमाद न कर। 1. (क) उत्तरा. प्रियशिनीवृत्ति, पृ. 496 से 501 तक (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 338 है. यद्यपि के शपाण्डरत्वादि गौतमे न सम्भवति, तथापि तन्निश्रयाऽशेषशिष्यबोधनार्थत्वाददुष्टम् / -ब. वृत्ति, पत्र 338 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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