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________________ नवम अध्ययन : नमिप्रवज्या] [157 आदि जल रहे हैं, क्या मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता ? इस प्रकार राजर्षि के मन में जरा-सा भी अहंकार उत्पन्न न हुआ। तत्पश्चात् जब इन्द्र ने राजर्षि को तस्करों, दस्युओं आदि का निग्रह करने के लिए प्रेरित किया, तब आपने जरा भी न छिपा कर निष्कपट भाव से कहा था कि मैं कैसे पहचान कि यह वास्तविक अपराधी है, यह नहीं ? इसलिए दूसरों का निग्रह करने की अपेक्षा मैं अपनी दोषदुष्ट प्रात्मा का ही निग्रह करता हूँ। इससे उनमें माया पर विजय का स्पष्ट लक्षण प्रतीत हुआ। जब इन्द्र ने यह कहा कि आप पहले हिरण्य-सुवर्ण आदि बढ़ा कर, आकांक्षाओं को शान्त करके दीक्षा लें तो उन्होंने कहा कि आकांक्षाएँ अनन्त, असीम हैं, उनकी तृप्ति कभी नहीं हो सकती / मैं तप-संयम के आचरण से निराकांक्ष होकर ही अपनी इच्छाओं को शान्त करने जा रहा हूँ। इससे इन्द्र को उनमें लोभविजय की स्पष्ट प्रतीति हुई / इसीलिए इन्द्र ने आश्चर्य व्यक्त किया कि राजवंश में उत्पन्न होकर भी आपने कषायों को जीत लिया। इसके अतिरिक्त इन्द्र को अपने द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के राजर्षि द्वारा किये समाधान में भी सर्वत्र उनकी सरलता, मृदुता, क्षमा, निर्लोभता आदि साधुता के उज्ज्वल गुणों के दर्शन हुए / इसलिए इन्द्र ने उनकी साधुता का बखान किया तथा यहाँ और परलोक में भी उनके उत्तम होने और सर्वोत्तम सिद्धिस्थान प्राप्त करने की भविष्यवाणी की / अन्त में पूर्ण श्रद्धा से उनके चरणों में बारबार वन्दना की।' तिरोडी-किरीटी सामान्यतया किरीट और मुकुट दोनों पर्यायवाची शब्द माने जाते हैं, अत: बृहद्वत्ति में तिरीटी का अर्थ मुकुटवान् ही किया है, किन्तु सूत्रकृतांगचूणि में—जिसके तीन शिखर हों, उसे 'मुकुट' और जिसके चौरासी शिखर हों, उसे 'तिरीट या किरीट' कहा गया है / जिसके सिर पर किरीट हो, उसे किरीटी कहते हैं / 2 श्रामण्य में सुस्थित नमि राजर्षि और उनके दृष्टान्त द्वारा उपदेश 61. नमी नमेइ अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइयो। ___चइऊण गेहं वइदेही सामण्णे पज्जुवढिओ // [61] नमि राजर्षि ने (इन्द्र द्वारा स्तुति-वन्दना होने पर गर्व त्याग करके) भाव से अपनी आत्मा को (अात्मतत्त्व भावना से) विनत किया। साक्षात् देवेन्द्र के द्वारा प्रेरित होने पर भी (श्रमणधर्म से विचलित न होकर) गृह और वैदेही (-विदेहदेश की राजधानी मिथिला अथवा विदेह की राज्यलक्ष्मी) को त्याग कर श्रामण्यभाव को आराधना में तत्पर हो गए। 62. एवं करेन्ति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा। विणियट्टन्ति भोगेसु जहा से नमी रायरिसी / / -त्ति बेमि / [62] जो सम्बुद्ध (तत्त्वज्ञ), पण्डित (शास्त्र के अर्थ का निश्चय करने वाले) और 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 31-319 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 455 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 319 (ख) सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. ३६०--'तिहि सिहरेहिं मउडो वुच्चति, चतुरसीहि तिरीडं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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