________________ 156] [उत्तराध्ययनसूत्र देवेन्द्र द्वारा असली रूप में स्तुति, प्रशंसा एवं वन्दना 55. अवउज्झिऊण माहणरूवं विउविऊण इन्दत्तं / वन्दइ प्रभित्थुणन्तो इमाहि महुराहिं वहि // [55] देवेन्द्र, ब्राह्मण रूप को छोड़ कर अपनी वैक्रियशक्ति से अपने वास्तविक इन्द्र के रूप को प्रकट करके इन मधुर वचनों से स्तुति करता हुआ (नमि राजर्षि को) वन्दना करता है 56. 'अहो ! ते निज्जिओ कोहो अहो ! ते माणो पराजिओ। अहो ! ते निरक्किया माया अहो ! ते लोभो वसीकओ // [56] अहो ! आश्चर्य है आपने क्रोध को जीत लिया है, अहो ! आपने मान को पराजित किया है, अहो ! आपने माया को निराकृत (दूर) कर दिया है, अहो ! आपने लोभ को वश में कर लिया है। 57. अहो ! ते अज्जवं साहु अहो ! ते साहु मद्दवं / अहो ! ते उत्तमा खन्ती अहो ! ते मुत्ति उत्तमा / [57] अहो ! आपका आर्जव (सरलता) उत्तम है, अहो ! उत्तम है आपका मार्दव (कोमलता), अहो ! उत्तम है आपकी क्षमा, अहो ! उत्तम है अापकी निर्लोभता / 58. इहं सि उत्तमो भन्ते ! पेच्चा होहिसि उत्तमो। ___ लोगुत्तमुत्तमं ठाणं सिद्धि गच्छसि नीरओ // ' [58] भगवन् ! आप इस लोक में भी उत्तम हैं और परलोक में भी उत्तम होंगे; क्योंकि कर्म-रज से रहित होकर आप लोक में सर्वोत्तम स्थान–सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करेंगे। 59. एवं अभित्थुणन्तो रायरिसि उत्तमाए सद्धाए। पयाहिणं करेन्तो पुणो पुणो बन्दई सक्को // [56] इस प्रकार उत्तम श्रद्धा से राजर्षि की स्तुति तथा प्रदक्षिणा करते हुए शकेन्द्र ने पुनःपुनः वन्दना की। 60. तो वन्दिऊण पाए चक्कंकुसलक्खणे मुणिवरस्स / ___आगासेणुप्पइप्रो ललियचवलकुंडलतिरोडी // [60] तदनन्तर नमि मुनिवर के चक्र और अंकुश के लक्षणों (चिह्नों) से युक्त चरणों में वन्दन करके ललित एवं चपल कुण्डल और मुकुट का धारक इन्द्र आकाशमार्ग से उड़ गया (स्वस्थान में चला गया)। विवेचन–इन्द्र के द्वारा राजर्षि की स्तुति का कारण-इन्द्र ने सर्वप्रथम नमि राषि से यह कहा था कि 'आप पहले उद्धत राजवर्ग को जीतें, बाद में दीक्षा लें, इससे राजर्षि का चित्त जरा भी क्षुब्ध नहीं हुआ। इन्द्र को ज्ञात हो गया कि आपने क्रोध को जीत लिया है तथा जब इन्द्र ने कहा कि आपका अन्तःपुर एवं राजभवन जल रहा है, तब मेरे जीवित रहते मेरा अन्तःपुर एवं राजभवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org