________________ 152] [उत्तराध्ययनसूत्र प्रव्रज्या का पालन करना तो सुखसाध्य है, किन्तु गृहस्थाश्रम का पालन दुःखसाध्य-कठिन है / ' देवेन्द्र-कथित हेतु और कारण-धर्मार्थी पुरुष को गृहस्थाश्रम का सेवन करना चाहिए, क्योंकि वह घोर है, अर्थात् संन्यास की अपेक्षा ग्रहस्थाश्रम घोर है, जैसे अनशनादि तप / उसे छोड़ कर संन्यासाश्रम में जाना उचित नहीं। यह हेतु और कारण है।' राजर्षि के उत्तर का आशय–घोर होने मात्र से कोई कार्य श्रेष्ठ नहीं हो जाता। वालतप करने वाला तपस्वी पंचाग्नितप, कंटकशय्याशयन आदि घोर तप करता है, किन्तु वह सर्वसावद्यविरति रूप मुनिधर्म (संयम) की तुलना में नहीं आता, यहाँ तक कि वह उसके सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं है। अतः जो स्वाख्यातधर्म नहीं है, वह घोर हो तो भी धर्मार्थी के लिए अनुष्ठेयअाचरणीय नहीं है, जैसे आत्मवध आदि / वैसे ही गृहस्थाश्रम है, क्योंकि गृहस्थाश्रम का घोर रूप सावध होने से मेरे लिए हिंसादिवत त्याज्य है। प्राशय यह है कि धर्मार्थी के लिए गहस्थाश्रम घोर होने पर भी स्वाख्यातधर्म नहीं है, उसके लिए स्वाख्यातधर्म ही आचरणीय है, चाहे वह घोर हो या अघोर / इसलिए मैं गृहस्थाश्रम को जो छोड़ रहा हूँ, वह उचित ही है / 'स्वाख्यातधर्म' का अर्थ-तीर्थंकर आदि के द्वारा सर्वसावधप्रवृत्तियों से विरति रूप होने से जिसे सर्वथा सुष्ठ-शोभन कहा गया (कथित) है। आशय यह है कि तीर्थकरों द्वारा कथित सर्वविरतिचारित्ररूप धर्म स्वाख्यात है। इसका समग्ररूप से आचरण करने वाला स्वाख्यातधर्मासर्वविरतिचारित्रवान् मुनि होता है। 'कुसग्गेण तु भुजए' : दो रूप, दो अर्थ-(१) जो कुश की नोक पर टिके उतना ही खाता है, (2) कुश के अग्रभाग से ही खाता है, अंगुली आदि से उठा कर नहीं खाता। पहले का प्राशय एक बार खाना है, जबकि दूसरे का प्राशय अनेक बार खाना है। नवम प्रश्नोत्तर : हिरण्यादि तथा भण्डार की वृद्धि करने के सम्बन्ध में 45. एयमलृ निसामित्ता हेउकारण—चोइओ। तओ नमि रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-॥ [45] (राजर्षि का) पूर्वोक्त कथन सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा१. (क) घोरः अत्यन्त दुरनुचरः, स चासी आश्रमश्च घोराश्रमो गार्हस्थ्यं, तस्यैवाल्पसत्त्वदं करत्वात् / यत पाह:---'गृहस्थाश्रमसमो धर्मो, न भूतो, न भविष्यति / पालयन्ति नराः शूराः, क्लोवा: पाखण्डमाश्रिताः // अन्यमेतद् व्यतिरिक्तं कृषि पशुपाल्याद्यशक्तकातरजनाभिनन्दितं " .." / -बृहद्वत्ति, पत्र 315. (ख) 'यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः / तथा गृहस्थाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाथमाः // ' - महाभारत-अनुशासन पर्व. अ. 141 (ग) 'तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।' –मनुस्मृति 378 (घ) 'पाश्रयन्ति तमित्याश्रयाः, का भावना ? सुखं हि प्रव्रज्या क्रियते, दुःखं गहाश्रम इति, तं हि सर्वाश्रमा स्तर्कयन्ति।' –उत्त. चूर्णि, पृ. 184 / / 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 315 3. वही, पत्र 316 4. वही, पत्र 316 5. बहवत्ति, पत्र 316 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org