________________ 150] [उत्तराध्ययनसूत्र चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम हो तो) संयम (ग्रहण करना) श्रेयस्कर-कल्याणकारक है, (भले ही) वह (उस अवस्था में) (किसी को) कुछ भी दान न देता हो। विवेचन–देवेन्द्र-कथित हेतु और कारण-यज्ञ, दान आदि धर्मजनक हैं, क्योंकि ये प्राणियों के लिए प्रीतिकारक हैं / जो जो कार्य प्राणिप्रीतिकारक होते हैं, वे-वे धर्मजनक हैं, जैसे प्राणातिपातविरमण आदि; यह हेतु है और यज्ञादि में प्राणिप्रीतिकरता धर्मजनकत्व के बिना नहीं होती; यह कारण है / इन्द्र के कथन का प्राशय है कि आप जब तक यज्ञ नहीं करते-कराते; गो आदि का दान स्वयं नहीं देते-दिलाते तथा श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन नहीं कराते और स्वयं शब्दादि विषयों का उपभोग नहीं करते, तब तक आपका दीक्षित होना अनुचित है।' राजर्षि द्वारा प्रदत्त उत्तर का आशय ब्राह्मणवेषी इन्द्र ने राजषि के समक्ष ब्राह्मण-परम्परा में प्रचलित यज्ञ, ब्राह्मणभोजन, दान और भोग-सेवन, ये चार विषय प्रस्तुत किये थे, जबकि राजर्षि ने उनमें से केवल एक दान का उत्तर दिया है, शेष प्रश्नों के उत्तर उसी में समाविष्ट हैं। दस लाख गायों का दान प्रतिमास देने वाले की अपेक्षा किञ्चित् भी दान न देने वाले व्यक्ति का संयमपालन श्रेयस्कर है / इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अन्न-वस्त्रादि का दान पापजनक है या योग्य पात्र को इनका दान नहीं करना चाहिए, किन्तु इस शास्त्रवाक्य का अभिप्राय यह है कि योग्य पात्र को दान देना यद्यपि पुण्यजनक है, तथापि वह दान संयम के समान श्रेष्ठ नहीं है। संयम उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ है / क्योंकि दान से तो परिमित प्राणियों का ही उपकार होता है, किन्तु संयमपालन करने में सर्वसावद्य से विरति होने से उसमें षट्काय (समस्त प्राणियों) की रक्षा होती है / इस कथन से दान की पुण्यजनकता सिद्ध होती है, क्योंकि यदि दान पुण्यजनक न होता तो संयम उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ है, यह कथन असंगत हो जाता। तीर्थंकर भी दीक्षा लेने से पूर्व एक वर्ष तक लगातार दान देते हैं / तीर्थंकरों द्वारा प्रदत्त दान महापुण्यवर्द्धक है, मगर उसकी अपेक्षा भी अकिंचन बन कर संयमपालन करना अत्यन्त श्रेयस्कर है, यह बताना ही तीर्थंकरों के दान का रहस्य है। यज्ञ आदि प्रेय हैं, सावद्य हैं, क्योंकि उनमें पशुवध होता है, स्थावरजीवों की भी हिंसा होती है और भोग भी सावध ही हैं, इसलिए जो सावध है, वह प्राणिप्रीतिकारक नहीं होता, जैसे हिंसा आदि / यज्ञ आदि सावध होने से प्राणिप्रीतिकर नहीं हैं / नमि राजर्षि का आशय यह है कि दानयज्ञादि से संयम श्रेयस्कर है, इसलिए दानादि अनुष्ठान किये बिना ही मेरे द्वारा संयमग्रहण करना अनुचित नहीं है। 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 315 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 424 2. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 425-426 3. गोदान चेह यागाद्युपलक्षणम्, अतिप्रभूतजनाचरितमित्युपात्तम् / एवं च संयमस्य प्रशस्यतरत्वमभिदधता यागादीनां सावद्यत्वमर्थादावेदितम् / तथा च यज्ञप्रणेतृभिगक्तम् षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि / अश्वमेधस्य बचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः / / इयत्पशुवधे कथमसावधतानाम ?""भोगानां तु साबद्यत्वं सुप्रसिद्धम् / तथा च प्राणिप्रीतिकरत्वादित्य सिद्धो देतः यत्सावा, न तत्प्राणिप्रीतिकरम यथा हिंसादि / सावधानि च यागादीनि / रम्यथा हिसादि / सावधानि च यागादानि / -बृहद्वत्ति, पत्र 315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org