________________ नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या] [149 सामर्थ्य होने पर भी आप उद्दण्ड राजाओं को नहीं झुकाते, इसलिए आपमें नराधिपत्व एवं क्षत्रियत्व घटित नहीं हो सकता, यह कारण है। अतः राजाओं को जीते बिना आपका प्रवजित होना अनुचित है।' नमि राजषि के उत्तर का आशय-बाह्य शत्रुओं को जीतने से क्या लाभ ? क्योंकि उससे सुख प्राप्ति नहीं हो सकती, पंचेन्द्रिय, क्रोधादिकषाय एवं दुर्जय मन आदि से युक्त दुःखहेतुक एक आत्मा को जीत लेने पर सभी जीत लिये जाते हैं, यह विजय ही शाश्वत सुख का कारण है / अतः मुमुक्षु प्रात्मा द्वारा शाश्वतसुखविघातक कषायादि युक्त प्रात्मा ही जीतने योग्य है। अतः मैं बाह्यशत्रुओं पर विजय की उपेक्षा करके प्रात्मा को जीतने में प्रवृत्त हूँ। दुज्जयं चेव अप्पाणं-दो व्याख्याएं—(१) दुर्जय प्रात्मा अर्थात् मन; जो अनेकविध अध्यवसाय-स्थानों में सतत गमन करता है, वह आत्मा मन ही है। अथवा (2) आत्मा (जीव) ही दुर्जय है / इस आत्मा के जीत लेने पर सब बाह्य शत्रु जीत लिये जाते हैं / सप्तम प्रश्नोत्तर : यज्ञ, ब्राह्मणभोजन, दान और भोग करके दीक्षाग्रहण के सम्बन्ध में 37. एयमळं निसामित्ता हेउकारण-चोइओ। ___ तओ नमि रायरिसि देविन्दो इणमब्बवी-॥ [37] (नमि राषि की) इस उक्ति को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजपि से इस प्रकार कहा 38. 'जइत्ता विउले जन्ने भोइत्ता समणमाहणे / दच्चा भोच्चा य जिट्ठा य तओ गच्छसि खत्तिया ! // [38] हे क्षत्रिय ! पहले (ब्राह्मणों द्वारा) विपुल यज्ञ करा कर, श्रमणों और ब्राह्मणों को भोजन करा कर तथा (ब्राह्मणादि को गौ, भूमि, स्वर्ण आदि का) दान देकर, (मनोज्ञ शब्दादि भोगों का) उपभोग कर एवं (स्वयं) यज्ञ करके फिर (दीक्षा के लिए) जाना। 39. एयमटठं निसामित्ता हेउकारण-चोडओ। तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी-॥ [36], इस (अनन्तरोक्त) अर्थ को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से यह कहा 40. 'जो सहस्सं सहस्साणं मासे मासे गवं दए। तस्सावि संजमो सेओ अदिन्तस्स वि किंचण // ' [40] जो व्यक्ति प्रतिमास दस लाख गायों का दान करता है, उसका भी (कदाचित् 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 314 (ख) उत्तरा, प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 415 2. (क) बृहवृत्ति, पत्र 314 (ख) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 2, पृ. 419-420 बहदवत्ति, पत्र 314 : (1) प्रतति सततं गच्छति तानि तान्यध्यवसायस्थानान्तराणीति व्युत्पत्तरात्मा मनः, तच्च दुर्जयम् (2) अथवा चकारो हेत्वर्थः, यस्मादात्मैव जीव एव दुर्जयः / ततः सर्वमिन्द्रियाद्यात्मनि जिते जितम् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org