________________ 148] [उत्तराध्ययनसूत्र छठा प्रश्नोत्तर : उद्दण्ड राजाओं को वश में करने के सम्बन्ध में 31. एयमढं निसामित्ता हेउकारण—चोइओ। तओ नमि रायरिसि देविन्दो इणमब्बवी // र कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजपि को इस प्रकार कहा- 32. 'जे केइ पत्थिवा तुम्भं नाऽऽनमन्ति नराहिवा! बसे ते ठावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया! // ' [32] हे नराधिपति ! हे क्षत्रिय ! कई राजा, जो आपके सामने नहीं झुकते (नमते---प्राज्ञा नहीं मानते), (पहले) उन्हें अपने वश में करके, फिर (प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए) जाना। 33. एयमझें निसामित्ता हेउकारण-चोइयो। तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी-॥ [33] (देवेन्द्र की) यह बात सुन कर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को यों कहा 34. 'जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ।' - [34] जो दुर्जय (जहाँ विजयप्राप्ति दुष्कर हो, ऐसे) संग्राम में दस लाख सुभटों को जीतता है; (उसकी अपेक्षा जो) एक आत्मा को (विषय-कषायों में प्रवृत्त अपने आपको) जोत (वश में कर) लेता है , उस (आत्मजयी) की यह विजय ही उत्कृष्ट (परम) विजय है। 35. अध्याणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ? अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए-॥ [35] अपने आपके साथ युद्ध करो, तुम्हें बाहरी युद्ध (राजाओं आदि के साथ युद्ध) करने से क्या लाभ ?, (क्योंकि मुनि विषयकषायों में प्रवृत्त) आत्मा को आत्मा द्वारा जीत कर ही (शाश्वत स्ववश मोक्ष) सुख को प्राप्त करता है। 36. पंचिन्दियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च / दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जियं // [36] (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र, ये) पांच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया और लोभ तथा दुर्जय प्रात्मा—मन (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग से दूषित मन); ये सब एक (अकेले अपने) आत्मा को जीत लेने पर जीत लिये जाते हैं। विवेचन--इन्द्र द्वारा कथित हेतु और कारण-आपको उद्दण्ड और नहीं झुकने वाले राजाओं को नमन कराना (झुकाना) चाहिए, क्योंकि आप सामर्थ्यवान् नराधिप क्षत्रिय हैं। जो सामर्थ्यवान् नराधिपति होते हैं, वे उद्दण्ड राजाओं को नमन कराने वाले होते हैं, जैसे भरत आदि नृप ; यह हेतु है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org