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________________ 132] [उत्तराध्ययनसूत्र होती / अर्थात्-मुझे इतना देकर इसने परिपूर्णता कर दी, इस प्रकार की संतुष्टि उसे नहीं होती। कहा भी है— न वह्निस्तृणकाष्ठेषु, नदीभिर्वा महोदधिः / न चैवात्मार्थसारेण, शक्यस्तर्पयितुं क्वचित् / / अग्नि तृण और काष्ठों से और समुद्र नदियों से तृप्त नहीं होता, वैसे ही प्रात्मा अर्थ-सर्वस्व दे देने से कभी तृप्त नहीं किया जा सकता / ' स्त्रियों के प्रति आसक्ति-त्याग का उपदेश 18. नो रक्खसीसु गिज्झज्जा गंडवच्छासु उणेगचित्तासु / जानो पुरिसं पलोभित्ता खेल्लन्ति जहा व दासेहिं // [18] जिनके वक्ष में गांठे (ग्रन्थियाँ) हैं, जो अनेक चित्त (कामनाओं) वाली हैं, जो पुरुष की प्रलोभन में फंसा कर खरीदे हुए दास की भांति उसे नचाती हैं, (वासना की दृष्टि से ऐसी) राक्षसीस्वरूप (साधनाविघातक) स्त्रियों में आसक्त (गृद्ध) नहीं होना चाहिए। 19. नारीसु नोवगिज्झज्जा इत्थीविप्पजहे अणगारे / धम्मं च पेसलं नच्चा तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं // [16] स्त्रियों को त्यागने वाला अनगार उन नारियों में प्रासक्त न हो / धर्म (साधुधर्म) को पेशल (-अत्यन्त कल्याणकारी-मनोज्ञ) जान कर भिक्षु उसी में अपनी आत्मा को स्थापित (संलग्न) कर दे। विवेचन --'नो रक्खसीसु गिज्झज्जा'—यहाँ राक्षसी शब्द लाक्षणिक है, वह कामासक्ति या उत्कट वासना का अभिव्यञ्जक है। जिस प्रकार राक्षसी सारा रक्त पी जाती है और जीवन का सत्त्व चूस लेती है, वैसे ही स्त्रियां भी कामासक्त पुरुष के ज्ञानादि गुणों तथा संयमी जीवन एवं धर्म-धन का सर्वनाश कर डालती हैं। स्त्री पुरुष के लिए कामोत्तेजना में निमित्त बनती है। इस दृष्टि से उसे राक्षसी कहा गया है / वैसे ही स्त्री के लिए पुरुष भी वासना के उद्दीपन में निमित्त बनता है, इस दृष्टि से उसे भी राक्षस कहा जा सकता है / गंड-वच्छासु-गंड अर्थात् गाँठ या फोड़ा-गुमड़ा। स्त्रियों के वक्षस्थल में स्थित स्तन मांस की ग्रन्थि या फोड़े के समान होते हैं, इसलिए उन्हें ऐसा कहा गया है / 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 296 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 297 (ख) वातोद्धं तो दहति हुतभुग देहमेकं नराणाम्, मत्तो नागः, कुपितभजगश्चैकदेहं तथैव / ज्ञानं शीलं विनय-विभवौदार्य-विज्ञान-देहान , सर्वानर्थान दहति बनिताऽऽमुष्मिकाहिकाश्च // अर्थात्-हवा के झोंके से उड़ती हुई अग्ति मनुष्यों के एक शरीर को जलाती है, मतवाला हाथी और ऋद्ध सर्प एक ही देह को नष्ट करता है, किन्तु कामिनी ज्ञान, शील, विनय, वैभव, प्रौदार्य, विज्ञान और शरीर आदि सभी इहलौकिक-पारलौकिक पदार्थों को जला (नष्ट कर) देती है। -हारीतस्मृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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