________________ 130] [उत्तराध्ययनसूत्र यदि प्रान्तभोजन मिले तो उसे खाए ही, फेंके नहीं, किन्तु गच्छनिर्गत (जिनकल्पी) के लिए यह नियम है कि वह प्रान्त (नीरस) भोजन ही करे / साथ ही 'जवणट्टाए' का स्पष्टीकरण भी यह है कि गच्छवासी साधु यदि प्रान्त आहार से जीवनयापन हो तो उसे खाए, किन्तु वातवृद्धि हो जाने के कारण जीवनयापन न होता हो ता न खाए / गच्छनिर्गत साधु जीवनयापन के लिए प्रान्त आहार ही करे।' कुम्मासं : अनेक अर्थ--(१) कुल्माष-राजमाष, (2) तरल और खट्टा पेय भोजन, जो फलों के रस से या उबले हुए चावलों से बनाया जाता है (3) दरिद्रों का भोजन, (4) कुलथी, (5) कांजी।। समाधियोग से भ्रष्ट श्रमण और उसका दूरगामी दुष्परिणाम 13. 'जे लक्खणं च सुविणं च अंगविज्जं च जे पउंजन्ति / न हु ते समणा वुच्चन्ति' एवं आयरिएहि अक्खायं // [13] जो साधक लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र एवं अंगविद्या का प्रयोग करते हैं, उन्हें सच्चे अर्थों में 'श्रमण' नहीं कहा जाता (-जा सकता); ऐसा प्राचार्यों ने कहा है। 14. इह जीवियं अणियमेत्ता पन्भट्ठा समाहिजोएहि / ते कामभोग-रसगिद्धा उववज्जन्ति आसुरे काए / [14] जो साधक वर्तमान जीवन को नियंत्रित न रख सकने के कारण समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं / वे कामभोग और रसों में गद्ध (-पासक्त) साधक पासुरकाय में उत्पन्न होते हैं / 15. तत्तो वि य उवट्टित्ता संसारं बहं अणुपरियडन्ति / बहुकम्मलेवलित्ताणं बोहो होइ सुदुल्लहा तेसि / / [15] वहाँ से निकल कर भी वे बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं / बहुत अधिक कर्मों के लेप से लिप्त होने के कारण उन्हें बोधिधर्म का प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है / विवेचन-लक्षणविद्या-शरीर के लक्षणों-चिह्नों को देखकर शुभ-अशुभ फल कहने वाले शास्त्र को लक्षणशास्त्र या सामुद्रिकशास्त्र कहते हैं / शुभाशुभ फल बताने वाले लक्षण सभी जीवों में विद्यमान हैं। स्वप्नशास्त्र-स्वप्न के शुभाशुभ फल की सूचना देने वाला शास्त्र / 1. वृहद्वृत्ति, पत्र 294-295 2. (क) कुल्माषाः राजमाषाः (राजमाह)-बृ. वृत्ति, पत्र 295, सुखबोधा, पत्र 129 (ख) A Sanskrit English Dictionary, P. 296 (ग) विनयपिटक 4 / 176, विसुद्धिमग्गो 1111, पृ. 305 (घ) पुलाक, बुक्कस, मंयु आदि सब प्रान्त भोजन के ही प्रकार हैं:--अतिरूक्षतया चास्य प्रान्तत्वम्' --बृहद्वृत्ति, पत्र 295 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org