________________ अष्टम अध्ययन : कापिलीय] [129 समिए–समित-समितिमान्–सम्यक् प्रवृत्त ! पाणवहं अणुजाणे : आशय---इस गाथा में बताया गया है--प्राणिवध का अनुमोदनकर्ता भी सर्वदुःखों से मुक्त नहीं हो सकता, तब फिर जो प्राणिवध करते-कराते हैं, वे दुःखों से कैसे मुक्त हो सकते हैं !' दंडं-हिंसारूप दण्ड / उदाहरण-उज्जयिनी में एक श्रावकपुत्र था / एक वार चोरों ने उसका अपहरण कर लिया / उसे मालव देश में एक पारधी के हाथ बेच दिया। पारधी ने उससे कहा-'बटेर मारो।' उसने कहा-'नहीं मारूगा।' इस पर उसे हाथी के पैरों तले कुचला तथा मारा-पीटा गया, मगर उसने प्राणत्याग का अवसर प्राने पर भी जीवहिंसा करना स्वीकार न किया। इसी प्रकार साधुवर्ग को भी जीवहिंसा त्रिकरण-त्रियोग से नहीं करनी चाही / ' रसासक्ति से दूर रह कर एषणासमितिपूर्वक आहार-ग्रहण-सेवन का उपदेश 11. सुद्ध सणाओ नच्चाणं तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्याणं / जायाए घासमेसेज्जा रसगिद्धे न सिया भिक्खाए / {11] भिक्षु शुद्ध एषणाओं को जान कर उनमें अपने आप को स्थापित करे (अर्थात् --एषणाशुद्ध आहार-ग्रहण में प्रवृत्ति करे) / भिक्षाजीवी साधु (संयम) यात्रा के लिए ग्रास (पाहार) की एषणा करे, किन्तु वह रसों में गृद्ध (प्रासक्त) न हो। 12. पन्ताणि चेव सेवेज्जा सोयपिण्डं पुराणकुम्मासं / प्रदु वुक्कसं पुलागं वा जवणछाए निसेवए मंथु॥ [12] भिक्षु जीवनयापन (शरीरनिर्वाह) के लिए (प्रायः) प्रान्त (नीरस) अन्न-पान, शीतपिण्ड, पुराने उड़द (कुल्माष), बुक्कस (सारहीन) अथवा पुलाक (रूखा) या मंथु (बेरसत्तु आदि के चूर्ण) का सेवन करे। विवेचन-जायाए घासमेसेज्जा : भावार्थ-संयमजीवन-निर्वाह के लिए साधु आहार की गवेषणादि करे। जैसे कि कहा है V 'जह सगडक्खोवंगो कोरइ भरवहणकारणा णवरं / तह गुणभरवहणथं पाहारो बंभयारीणं / / जैसे- गाड़ी के पहिये की धुरी को भार ढोने के कारण से चुपड़ा जाता है, वैसे ही महाव्रतादि गुणभार को वहन करने की दृष्टि से ब्रह्मचारी साधक आहार करे / पंताणि चेव सेवेज्जा : एक स्पष्टीकरण—इस पंक्ति की व्याख्या दो प्रकार से की गई हैप्रान्तानि च सेवेतैव, प्रान्तानि चैव सेवेत-(१) गच्छवासी मुनि के लिए यह विधान है कि 1. बृहद्वत्ति, पत्र 293 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 294 (ख) सुखबोधा, पत्र 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org