________________ जिस समय पैतालीस प्रागमों की संख्या स्थिर हो गई, उस समय श्रुत-पुरुष की जो प्राकृति बनाई गई है, उसमें दशवकालिक और उत्तराध्ययन को मुल स्थान पर रखा गया है। पर यह श्रत-पुरुष की आकृति का रेखांकन बहुत ही बाद में हग्रा है। यह भी अधिक सम्भव है कि उत्तराध्ययन, दशवकालिक को मूलसूत्र मानने का एक कारण यह भी रहा हो।८ जैन आगम-साहित्य में उत्तराध्ययन और दशवकालिक का गौरवपूर्ण स्थान है। चाहे श्वेताम्बर-परम्परा के प्राचार्य रहे हों, चाहे दिगम्बर-परम्परा के, उन्होंने उत्तराध्ययन और दशवकालिक का पुनः-पुनः उल्लेख किया है। कपायपाहुड की जयधवला टीका में तथा गोम्मटसार. में क्रमश: गुणधर प्राचार्य ने और सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र ने अंगबाह्य के चौदह प्रकार बताये हैं। उनमें सातवाँ दशवकालिक है और पाठवाँ उत्तराध्ययन है। नन्दीसूत्र में आचार्य देववाचक ने अंगबाह्य श्रुत के दो विभाग किये हैं। उनमें एक कालिक और दूसरा उत्कालिक है / कालिक सूत्रों की परिगणना में उत्तराध्ययन का प्रथम स्थान है और उत्कालिक सूत्रों की परिगणना में दशवकालिक का प्रथम स्थान है। सामान्यरूप से मूलसूत्रों की संख्या चार है / मूलसूत्रों की संख्या के सम्बन्ध में विज्ञों के विभिन्न मत हम पूर्व बता चके हैं। चाहे संख्या के सम्बन्ध में कितने ही मतभेद हों, पर सभी मनीषियों ने उत्तराध्ययन को मूलसूत्र माना है। 'उत्तराध्ययन' में दो शब्द हैं-उत्तर और अध्ययन / समवायांग में 'छत्तीसं उत्तरज्झयणाई' यह वाक्य मिलता है / 22 प्रस्तुत वाक्य में उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों का प्रतिपादन नहीं किन्तु छत्तीस उत्तर अध्ययन प्रतिपादित किये गये हैं। नन्दीसूत्र में भी 'उत्तरज्झयणाणि' यह बहुवचनात्मक नाम प्राप्त है। उत्तराध्ययन के अन्तिम अध्ययन की अन्तिम गाथा में 'छत्तीसं उत्तरज्झाए' इस प्रकार बहुवचनात्मक नाम मिलता है / 24 उत्तराध्ययन नियुक्ति में भी उत्तराध्ययन का नाम बहुवचन में प्रयोग किया गया है। 25 उत्तराध्ययनचणि में छत्तीस उत्तराध्ययनों का एक श्रुतस्कंध माना है / 26 तथापि उसका नाम चर्णिकार ने बहुवचनात्मक माना है / बहुवचनात्मक नाम से यह विदित है कि उत्तराध्ययन अध्ययनों का एक योग मात्र है / यह एककत क एक ग्रन्थ नहीं है। उत्तर शब्द पूर्व की अपेक्षा से है। जिनदासगणी महत्तर ने इन अध्ययनों की तीन प्रकार ने योजना की है--- 18. श्री पागमपूरुषन रहस्य, पृष्ठ 14 तथा 49 के सामने वाला चित्र / 19. दसवेयालियं उत्तरज्झयणं / --कषायपाहड (जयधवला सहित) भाग 1, पृष्ठ 13/25 20. दसवेयाल च उत्तरज्झयणं / --गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा 367 21. से कितं कालियं? कालियं प्रणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा-उत्तरज्झयणाई............." से कि तं उक्कालियं? उकालियं अणेगविहं पक्षणततं जहा-दसवेयालियं......... / —नंदी.मूत्र 43 22. समवायांग, समवाय 36 23 नन्दीमूत्र 43 24. उत्तराध्ययन 36/268 25. उत्तराध्ययननियुक्ति, गा. 4, प्र. 21, पा. टि. 4 26. एनेसिं चेत्र छतीमाए उत्तरभणाणं समुदयसमितिसमागमेणं उत्तरज्झयणभावसुतक्खंधे त्ति लभइ, ताणि पुण छतीसं उत्तरजझपणाणि इमेहि नाहि अणगंतव्वाणि / --उत्तराध्ययनचूणि, पृष्ठ 8 [23] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org