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________________ उन्होंने भी नन्दीसूत्र की अपनी दत्तियों में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य को ही स्थान दिया है। प्राचार्य जिनदासगणी महत्तर के आदर्श को लेकर ही वे चले हैं / अंगप्रविष्ट श्रुत की स्थापना इस प्रकार है१. दायाँ पर प्राचारांग 2. बायाँ पर सूत्रकृतांग 3. दाईं जंघा स्थानांग 4. बाई जंघा समवायांग 5. दायाँ उरु भगवती 6. बायाँ उरु ज्ञाताधर्मकथा 7. उदर उपासकदशा 8. पीठ अन्तकृद्दशा 9. दाई भुजा अनुत्तरौपपातिकदशा 10. बाईं भुजा प्रश्नव्याकरण 11. ग्रीवा विपाक 12. शिर इष्टिवाद प्रस्तुत स्थापना में प्राचारांग और सूत्रकृतांग को, मूलस्थानीय अर्थात् चरणस्थानीय माना है। दूसरे रूप में भी श्रत-पुरुष की स्थापना की गई है। उस रेखांकन में आवश्यक, दशवकालिक, पिण्डनियुक्ति और उत्तराध्ययन, इन चारों को मूलस्थानीय माना है। प्राचीन ज्ञानभण्डारों में श्रत-पुरुष के अनेक चित्र प्राप्त है / द्वादश उपांगों की रचना होने के बाद श्रतपुरुष के प्रत्येक अंग के साथ एक-एक उपांग की कल्पना की गई है। क्योंकि अंगों के अर्थ को स्पष्ट करने वाला उपांग है। किस अंग का कौन-सा उपांग है, वह इस प्रकार प्रतिपादित किया गया हैअंग उपांग प्राचारांग प्रोपपातिक सूत्रकृत राजप्रश्नीय स्थानांग जीवाभिगम समवाय प्रज्ञापना भगवती जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा सूर्यप्रज्ञप्ति उपासकदशा चन्द्रप्रज्ञप्ति अन्तकृतदशा निरयावलिया-कल्पिका अनुत्तरोपपातिकदशा कल्पावतंसिका प्रश्नव्याकरण विपाक पुष्पचूलिका दृष्टिवाद वृष्णिदशा पुष्पिका 17. श्री प्रागमपुरुषनु रहस्य, पृष्ठ 50 के सामने (श्री उदयपुर, मेवाड़ के हस्तलिखित भण्डार से प्राप्त प्राचीन) श्री प्रागमपुरुष का चित्र। [22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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