________________ सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय] [121 [23] देवों के कामभोगों के समक्ष मनुष्यसम्बन्धी कामभोग वैसे ही क्षुद्र हैं, जैसे कुश (डाभ) के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु समुद्र की तुलना में क्षुद्र है / 24. कुसग्गमेत्ता इमे कामा सन्निरुद्ध मि आउए / कस्स हेउं पुराकाउं जोगवखेमं न संविदे ? // [24] मनुष्यभव की इस अतिसंक्षिप्त आयु में ये कामभोग कुश के अग्रभाग पर स्थित जलविन्दु-जितने हैं / (फिर भी अज्ञानी) क्यों (किस कारण से) अपने लिए लाभप्रद योग-क्षेम को नहीं समझता! 25. इह कामाणियट्टस्स अत्तठे अवरज्मई / सोच्चा नेयाउयं मम्गं जं भुज्जो परिभस्सई // [25] यहाँ (मनुष्यजन्म में) (या जिनशासन में) कामभोगों से निवृत्त न होने वाले का प्रारमार्थ ( आत्मा का प्रयोजन) विनष्ट हो जाता है / क्योंकि न्याययुक्त मार्ग को सुनकर (स्वीकार करके) भी (भारी कर्म वाला मनुष्य) उससे परिभ्रष्ट हो जाता है / 26. इह कामणियट्टस्स अत्तठे नावरज्मई / पूइदेह-निरोहेणं भवे देवे त्ति मे सुयं // [26] इस मनुष्यभव में कामभोगों से निवृत्त होने वाले का प्रात्मार्थ नष्ट (सापराध) नहीं होता, क्योंकि वह (लघुकर्मा होने से) पूति-दुर्गन्धियुक्त (अशुचि) औदारिकशरीर का निरोध कर (छोड़कर) देव होता है / ऐसा मैंने सुना है / 27. इड्ढी जुई जसो वण्णो पाउं सुहमणुत्तरं / भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु तत्थ से उववज्जई // [27] (देवलोक से च्यव कर) वह जीव, जहाँ श्रेष्ठ ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण (प्रशंसा), (दीर्घ) अायु और (प्रचुर) सुख होते हैं, उन मनुष्यों (मानवकुलों) में पुनः उत्पन्न होता है / विवेचन--'प्रत्त? अवरज्झइ"नावरज्झइ भावार्थ--जो मनुष्यजन्म मिलने पर भी कामभोगों से निवृत्त नहीं होता, उसका प्रात्मार्थ आत्मप्रयोजन स्वर्गादि, अपराधी हो जाता है अर्थात् नष्ट हो जाता है। अथवा प्रात्मरूप अर्थ-धन सापराध हो जाता है, प्रात्मा से जो अर्थ सिद्ध करना चाहता है, वह सदोष बन जाता है। किन्तु जो कामनिवृत्त होता है, उसका आत्मार्थ-स्वर्गादि सापराध नहीं होता, अर्थात् भ्रष्ट नहीं होता। अथवा प्रात्मरूप अर्थ-धन, नष्ट नहीं होता, बिगड़ता नहीं।' पूइदेह का भावार्थ-औदारिकशरीर अशुचि है, क्योंकि यह हड्डी, मांस, रक्त आदि से युक्त स्थूल एवं घृणित, दुर्गन्धयुक्त होता है। 1. वृहद्वृत्ति, पत्र 282 2. वही, पत्र 282 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org