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________________ 120] [उत्तराध्ययनसूत्र कम्मसच्चा हु पाणिणो की पांच व्याख्याएँ-(१) जीव के जैसे कर्म होते हैं, तदनुसार ही उन्हें गति मिलती है। इसलिए प्राणी वास्तव में कर्मसत्य हैं / (2) जीव जो कर्म करते हैं, उन्हें भोगना ही पड़ता है। बिना भोगे छुटकारा नहीं, अतः 'जीवों को कर्मसत्य' कहा है। (3) जिनके कर्म-(मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियाँ) सत्य--अविसंवादी होते हैं, वे कर्मसत्य कहलाते हैं / (4) अथवा जिनके कर्म अवश्य ही फल देने वाले होते हैं, वे कर्मसत्य कहलाते हैं। (5) अथवा कर्मसक्ता रूपान्तर मान कर अर्थ किया है-संसारी जीव कर्मों में अर्थात् मनुष्यगतियोग्य क्रियाओं में सक्त-पासक्त हैं / अतएव वे कर्मसक्त हैं।' विउला सिक्खा-विपुल-शिक्षा : यहाँ शिक्षा का अर्थ किया है—ग्रहणरूप और प्रासेवनरूप शिक्षा-अभ्यास / ग्रहण का अर्थ है-शास्त्रीय सिद्धान्तों का अध्ययन करना--जानना और प्रासेवन का अर्थ है-ज्ञात प्राचार-विचारों को क्रियान्वित करना। इन्हें सैद्धान्तिक प्रशिक्षण और प्रायोगिक कह सकते हैं / सैद्धान्तिक ज्ञान के बिना प्रासेवन सम्यक नहीं होता और प्रासेवन के बिना सैद्धान्तिक ज्ञान सफल नहीं होता। इसलिए ग्रहण और प्रासेवन, दोनों शिक्षा को पूर्ण बनाते हैं। ऐसी शिक्षा विपुल-विस्तीर्ण तब कहलाती है, जब वह सम्यग्दर्शनयुक्त अणुव्रत-महाव्रतादिविषयक हो / 2 सोलवंता-अविरत सम्यग्दृष्टि वाले तथा विरतिमान-देश-सर्वविरतिरूप त्रारित्रवान् शीलवान् कहलाते हैं। प्राशय यह है---शीलवान् के अपेक्षा से तीन अर्थ होते हैं---अविरतिसम्यग्दृष्टि की अक्षा से सदाचारी, विरताविरत की अपेक्षा से अणुवती और सर्वविरत की अपेक्षा से महावती। सविसेसा--उत्तरोत्तर गुणप्रतिपत्तिरूप विशेषताओं से युक्त / 3 अदीणा-परीषह और उपसर्ग आदि के आने पर दीनता कायरता न दिखाने वाले, हीनता की भावना मन में न लाने वाले, पराक्रमी / / मूलियं—मौलिक-मूल में होने वाले मनुष्यत्व का / अइच्छिया-अतिक्रमण करके / निष्कर्षविपुल शिक्षा एवं शास्त्रोक्त व्रतधारी अदीन गृहस्थ श्रावक-श्राविका या साधु-साध्वी ही देवगति को प्राप्त करते हैं। वास्तव में मुक्तिगति का लाभ ही परम लाभ है, परन्तु सूत्र त्रिकालविषयक होते हैं / इस समय विशिष्ट संहनन के अभाव में मुक्ति पुरुषार्थ का अभाव है, इसलिए देवगति का लाभ ही यहाँ बताना अभीष्ट है।" मनुष्यसम्बन्धी कामभोगों की दिव्य कामभोगों के साथ तुलना 23. जहा कुसग्गे उदगं समुद्दण समं मिणे / एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अन्तिए / 1. (क) बृहद् वृत्ति, पत्र 281 (ख) उत्त. चूणि, पृ. 165 (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र 281 2. (क) 'शिक्षा ग्रहणाऽऽसेवनात्मिका' –सुखबोधा, पत्र 122 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 282 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 282 4. वही, पत्र 282 5. वही, पत्र 282 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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