________________ सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय] [117 तीन वणिकों का दृष्टान्त 14. जहा य तिनि वाणिया मूलं घेत्तूण निग्गया। एगोऽत्थ लहई लाहं एगो मूलेण आगओ॥ 15. एगो मूलं पि हारित्ता आगओ तत्थ वाणिओ। ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाणह / / [14-15] जैसे तीन वणिक मूलधन लेकर व्यापार के लिए निकले। उनमें से एक लाभ प्राप्त करता है, एक सिर्फ मूलधन को लेकर लौट आता है और एक वणिक मूलधन को भी गवा कर आता है। यह व्यवहार (-व्यापार) की उपमा है। इसो प्रकार धर्म के विषय में भी जान लेना चाहिए। 16. माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे / मूलच्छेएण जीवाणं नरग-तिरिक्खत्तणं धुवं / [16] (यथा—) मनुष्यपर्याय की प्राप्ति मूलधन है। देवगति लाभरूप है। मनुष्यों को नरक और तिर्यञ्चगति प्राप्त होना, निश्चय ही मूल पूंजी का नष्ट होना है। 17. दुहनो गई बालस्स आवई वहमूलिया। देवत्तं माणुसत्तं च जं जिए लोलयासढे // [17] बालजीव को दो प्रकार की गति होती है-(१) नरक और (2) तिर्यञ्च, जहाँ उसे वधमूलक कष्ट प्राप्त होता है, क्योंकि वह लोलुपता और शठता (वंचकता) के कारण देवत्व और मनुष्यत्व तो पहले ही हार चुका होता है। 18. तओ जिए सई होइ दुविहं दोग्गई गए। दुल्लहा तस्स उम्मज्जा अद्वाए सुचिरादवि / / [18] (नरक और तिर्यञ्च, इन) दो प्रकार की दुर्गति को प्राप्त (अज्ञानी जीव) (देव और मनुष्यगति को) सदा हारा हुअा (पराजित) ही होता है, (क्योंकि भविष्य में) दीर्घकाल तक उसका (पूर्वोक्त) दोनों दुर्गतियों से निकलना दुर्लभ है। 19. एवं जियं सपेहाए तुलिया बालं च पंडियं / ___मूलियं ते पवेसन्ति माणुसं जोणिमेन्ति जे // [16] इस प्रकार पराजित हुए बालजीव की सम्यक् प्रेक्षा (विचारणा) करके तथा बाल एवं पण्डित की तुलना करके जो मानुषी योनि में आते हैं; वे मूलधन के साथ (लौटे हुए वणिक् की तरह) हैं। 20. वेमायाहिं सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुब्वया। ___ उवेन्ति माणुसं जोणि कम्मसच्चा हु पाणिणो / [20] जो मनुष्य विविध परिणाम वाली शिक्षाओं से (युक्त होकर) घर में रहते हुए भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org