________________ 116] [उत्तराध्ययनसूत्र [12] इसी प्रकार देवों के कामभोगों के समक्ष मनुष्यों के काम भोग उतने ही तुच्छ हैं, (जितने कि हजार कार्षापणों के समक्ष एक काकिणी और राज्य की अपेक्षा एक आम / ) (क्योंकि) देवों का आयुष्य और कामभोग मनुष्य के आयुष्य और भोगों से सहस्रगुणा अधिक हैं। 13. अणेगवासानउया जा सा पनवओ ठिई। जाणि जीयन्ति दुम्मेहा ऊणे वाससयाउए / [13] 'प्रज्ञावान् साधक की देवलोक में अनेक नयुत वर्ष (असंख्यकाल) की स्थिति होती है, यह जान कर भी दुर्बुद्धि (विषयों से पराजित मानव) सौ वर्ष से भी कम आयुष्यकाल में उन दीर्घकालिक दिव्य सुखों को हार जाता है। विवेचन–ग्यारहवीं गाथा में दो दृष्टान्त—(१) एक काकिणी के लिए हजार कार्षापण को गँवा देना, (2) आम्रफलासक्त राजा के द्वारा जीवन और राज्य खो देना। इन दोनों दृष्टान्तों का सारांश अध्ययनसार में दिया गया है। कागिणीए- काकिणी शब्द के अर्थ-(१) चूणि के अनुसार एक रुपये का 80 वाँ भाग, अथवा वीसोपग का चतुर्थ भाग / (2) बृहद्वृत्ति के अनुसार--बीस कौड़ियों की एक-एक काकिणी। (3) 'संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार–पण के चतुरंश की काकिणी होती है / अर्थात् बीस मासों का एक पण होता है. तदनुसार 5 मासों की एक काकिणी (तौल के रूप में) होती है। (4) कोश के अनुसार काकिणी का अर्थ कौड़ी अथवा 20 कौड़ी के मूल्य का एक सिक्का है।' सहस्सं-सहस्रकार्षापण-सहस्र शब्द से चूर्णिकार और बृहवत्तिकार का अभिमत हजार कार्षापण उपलक्षित है / कार्षापण एक प्रकार का सिक्का था, जो उस युग में चलता था। वह सोना, चांदी, तांबा, तीनों धातुओं का होता था। स्वर्णकार्षापण 16 माशा का, रजतकार्षापण 32 रत्ती का और ताम्रकार्षापण 80 रत्ती के जितने भार वाला होता था / 2 अणेगवासानउया वर्षों के अनेक नयुत-नयुत एक संख्यावाचक शब्द है / वह पदार्थ की गणना में और आयुष्यकाल की गणना में प्रयुक्त होता है / यहाँ आयुष्यकाल की गणना की गई है। इसी कारण इसके पीछे वर्ष शब्द जोड़ना पड़ा / एक नयुत की वर्षसंख्या 84 लाख नयुतांग है। 3 जीयंति-हार जाते हैं। जाणि-दिव्यसुखों को।४ 1. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 131 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 272 (ग) A Sanskrit English Dictionary, P. 267 (घ) पाइअसहमहण्णवो, पृ. 235 2. (क) उत्तरा. चूणि, पृ. 162 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 276: सहस्र---दशशतात्मकं, कार्षापणानामिति गम्यते। (ग) M.M.Williams, Sanskrit English Dictionary, P. 276 3. (क) उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र 273 (ख) अनुयोगद्वारसूत्र 4. बहवृत्ति, पत्र 277 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org