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________________ सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय] [115 द्यूतेन मयेन पण्यांगनाभिः, तोयेन भूपेन हुताशनेन / मलिम्लुचेनांऽशहरेण नाशं, नीयेत वित्तं क्व धने स्थिरत्वम् ? जया, मद्यपान, वेश्यागमन, जल, राजा, अग्नि आदि के द्वारा ग्रांशिक हरण होने से धन का नाश हो जाता है, फिर धन की स्थिरता कहाँ ?'' पच्चुप्पण्णपरायणे प्रत्युत्पन्न अर्थात् वर्तमान में परायण--निष्ठ / अर्थात् - 'एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः'—जितना इन्द्रियगोचर है, इतना ही यह लोक है। इस प्रकार का नास्तिकमतानुसारी परलोकनिरपेक्ष / अय व्व अय = अज शब्द अनेकार्थक-इसके बकरा, भेड़, मेंढा, पशु आदि नाना अर्थ होते हैं। यहाँ प्रसंगानुसार इसका अर्थ--भेड या मेंढा है, क्योंकि इसके स्थान में एडक और उरभ्र शब्द यहाँ प्रयुक्त हैं। ___ आसुरियं दिसं--दो रूप : दो अर्थ- (१)असूर्य या असूरिक–जहाँ सूर्य न हो, ऐसा प्रदेश (दिशा)। जैसे कि ईशावास्योपनिषद् में प्रात्महन्ता जनों को अन्धतमस् से आवृत असूर्य लोक में जाना बताया गया है / (2) असुर अर्थात् रौद्रकर्म करने वाला / असुर की जो दिशा हो, उसे असुरीय कहते हैं। इसका तात्पर्यार्थ 'नरक' है, क्योंकि नरक में परमाधार्मिक असुर (नरकपाल) रहते हैं। नरक में सूर्य न होने के कारण वह तमसाच्छन्न रहता है तथा वहाँ असुरों का निवास है, इसलिए आसुरिय दिसं का भावार्थ 'नरक' ही ठोक है।' अल्पकालिक सुखों के लिए दीर्घकालिक सुखों को हारने वाले के लिए दो दृष्टान्त 21. जहा कागिणिए हेउं सहस्सं हारए नरो। अपत्थं अम्बगं भोच्चा राया रज्जंतु हारए / [11] जैसे एक (क्षुद्र) काकिणी के लिए मूर्ख मनुष्य हजार (कार्षापण) खो देता है और जैसे राजा अपथ्य रूप एक अाम्रफल खा कर बदले में राज्य को गँवा बैठता है, (वैसे ही जो व्यक्ति मनुष्य-सम्बन्धी भोगों में लुब्ध हो जाता है, वह दिव्य भोगों को हार जाता है।) 12. एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अन्तिए / सहस्सगुणिया भुज्जो आउं कामा य दिविया // 1. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनी टीका (पू.घासीलालजी म.) भा. 2, पृ. 242 (ख) उत्तरा. टीका, अ. रा. कोष, भा. 1852 (ग) सुखबोधा, पत्र 117 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 275 / / 3. (क) 'अजः पशः, स चेह प्रक्रमादुरभ्रः। --बहत्ति , पत्र 275 (ख) 'पाइयसद्दमहण्णवो' में देखें 'अय' शब्द, पृ. 69 4. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र 276 (ख) उत्तरा. चूणि, पृ. 161 (ग) “असुर्या नाम ते लोकाः अन्धेन तमसावृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति, ये केचनात्महनो जनाः॥" __--ईशावास्योपनिषद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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