________________ 114] [उत्तराध्ययनसूत्र [5-6-7| हिंसक, अज्ञानी, मिथ्याभाषी, मार्ग में लूटने वाला (लुटेरा), दूसरों की दी गई वस्तु को वीच में ही हड़पने वाला, चोर, मायावी, कुतोहर (कहाँ से धन-हरण करू ?, इसी उधेड़बुन में सदा लगा रहने वाला), शठ (धूर्त), स्त्री एवं रूपादि विषयों में गृद्ध, महारम्भी, महापरिग्रही, मदिरा और मांस का उपभोग करने वाला, हृष्टपुष्ट, दूसरों को दबाने-सताने वाला, बकरे की तरह कर्कर शब्द करते हुए मांसादि अभक्ष्य खाने वाला, मोटी तोंद और अधिक रक्त वाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के आयुष्य को आकांक्षा करता है, जिस प्रकार मेमना मेहमान की प्रतीक्षा करता है / 8. असणं सयणं जाणं वित्तं कामे य भुजिया। दुस्साहडं धणं हिच्चा बहु संचिणिया रयं // 9. ततो कम्मगुरू जन्तू पच्चुप्पन्नपरायणे / अय व्व आगयाएसे मरणन्तंमि सोयई // [8-6] आसन, शयन, वाहन (यान), धन एवं अन्य काम-भोगों को भोग कर, दुःख से बटोरा हुश्रा धन छोड़ कर बहुत कमरज संचित करके; केवल वर्तमान (या निकट) को ही देखने में तत्पर, तथा कर्मों से भारी बना हुआ प्राणी मरणान्तकाल में वैसे ही शोक करता है, जैसे कि मेहमान के आने पर मेमना करता है। 10. तो आउपरिक्खीणे चुया देहा विहिंसगा। __ आसुरियं दिसं बाला गच्छन्ति अवसा तमं // 10] तत्पश्चात् विविध प्रकार से हिंसा करने वाले बाल जीव, आयुष्य के परिक्षीण होने पर जब शरीर से पृथक् (च्युत) होते हैं, तब वे (कृतकों से) विवश हो कर अन्धकारपूर्ण आसुरी दिशा (नरक) की ओर जाते हैं। विवेचन--कण्हुहरे-कन्नुहरे : दो रूप : दो अर्थ—(१) कुतोहर: -किससे या कहाँ से द्रव्य का हरण करू ? अथवा (2) कन्नुहरः --किसके द्रव्य का हरण करू ? सदा इस प्रकार के दुष्ट अध्यवसाय वाला।' 'पाउयं नरए कंखे' का आशय-नरक के आयुष्य की आकांक्षा करता है, इसका प्राशय हैजिनसे नरकायुष्य का बन्ध हो, ऐसे पापकर्म करता है / 2 दुःस्साहडं धणं हिच्चा--दुःसंहृतं धनं : चार अर्थ-(१) समुद्रतरण आदि विविध प्रकार के दुःखों को सह कर इकट्ठ किये हुए धन को, (2) दुःस्वाहृतम् धनं दूसरों को दुःखी करके दुःख से स्वयं उपाजित धन, (3) दुःसंहृतम्-दुष्ट कार्य (जूया, चोरी, व्यभिचारादि) करके उपाजित धन, (4) अथवा दुःख से प्राप्त (मिला) हुग्रा धन / हिच्चा हित्वा--दो अर्थ--(१) विविध भोगोपभोगों में व्यय करके-छोड़ कर, अथवा (2) द्यूत आदि विविध दुर्व्यसनों में खोकर / प्राचार्य नेमिचन्द्र ने इसी का समर्थक एक श्लोक उद्ध त किया है१. (क) उत्तरा. टीका, अ. र. कोष, भा. 21852 (ख) उत्तरज्झयणाणि अनुवाद (मु. नथमलजी) अ.७, पृ.९४ (ग) उत्तरा. (गुजराती अनुवाद) पत्र 283 2. (क) उत्तरा. टीका, अ. र, कोष, भा. 21852 (ख) उत्तरा. (गुजराती अनुवाद) पृ. 283 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org