________________ सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय] [113 जवसं-यवस के अर्थ-चूणि और वृत्ति में इसका अर्थ किया गया है-मूग, उड़द आदि धान्य / शब्दकोष में अर्थ किया गया है--तृण, घास, गेहूँ ग्रादि धान्य / ' परिवठे--युद्धादि में समर्थ, जायमेए—जिसकी चर्बी बढ़ गई है, अतः जो मोटाताजा हो गया है / सयंगणे : दो रूप-(१) स्वांगणे-अपने घर के आंगन में, (2) विषयांगणे--इन्द्रियविषयों की गणना-चिन्तन करता हुआ / दुही : दो रूप : दो भावार्थ-(१) दुःखी-समस्त सुखसाधनों का उपभोग करता हुआ भी वह हृष्टपुष्ट मेमना इसलिए दुःखी है कि जैसे वध्य-मारे जाने वाले व्यक्ति को सुसज्जित करना, संवारना वस्तुतः उसे दुःखी करना ही है, वैसे ही इस मेमने को अच्छे-अच्छे पदार्थ खिलाना-पिलाना वस्तुतः दुःखप्रद ही हैं। (2) अदुही-अदुःखी बृहद्वत्ति में 'सेऽदुही' में अकार को लुप्त मानकर 'अदुही' की व्याख्या की गई है। वह मेमना (स्वयं को) अदुःखी-सुखी मान रहा था, क्योंकि उसे अच्छे-अच्छे पदार्थ खिलाये जाते थे तथा संभाला जाता था। दुःखी अर्थ ही यहाँ अधिक संगत है / इसके समर्थन में नियुक्ति की एक गाथा भी प्रस्तुत है आउरचिन्नाई एयाई, जाई चरइ नंदिनो। सुक्कतहिं लाढाहि एवं दोहाउलक्खणं // गौ ने अपने बछड़े से कहा- 'वत्स ! यह नंदिक (--मेमना) जो खा रहा है, वह रोगी का चिह्न है। रोगी अन्तकाल में जो कुछ पथ्य-कुपथ्य मांगता है, वह उसे दे दिया जाता है, सूखे तिनकों से जीवन चलाना दीर्घायु का लक्षण है। नरकाकांक्षी एवं मरणकाल में शोकग्रस्त जीव की दशा-मेंढे के समान 5. हिंसे बाले मुसावाई अद्धाणंमि विलोबए। ____ अन्नदत्तहरे तेणे माई कण्हहरे सढे / 6. इत्थीविसयगिद्ध य महारंभ--परिग्गहे / भुजमाणे सुरं मंसं परिवूढे परंदमे / 7. अयकक्कर---भोई य तु दिल्ले चियलोहिए। आउयं नरए कंखे जहाएसं व एलए // 1. (क) 'यवसो मुद्माषादि'-बृहद्वृत्ति, पत्र 272 (ख) सुखबोधा, पत्र 116 (ग) चूणि, पृ. 158 (घ) पाइयसद्दमहण्णवो, पृ. 439, 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 272 (ख) उत्तराध्ययन चूणि, पृ. 158 (ग) उत्तरा. टीका, अ. रा. कोष, भा. 21852 3. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 159 (ख) सुखबोधा, पत्र 117 (ग) सेऽदुहित्ति अकार प्रश्नपात् स इत्युरभ्रोऽदु:खी सुखी सन् / -बृहदवत्ति, पत्र 273 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org