________________ 118] [ उत्तराध्ययनसूत्र सुव्रती हैं, वे मनुष्य-सम्बन्धी योनि को प्राप्त होते हैं; क्योंकि प्राणी कर्मसत्य होते हैं; (अर्थात्स्वकृत कर्मों का फल अवश्य पाते हैं 1) 21. जेसि तु विउला सिक्खा मूलियं ते अइच्छिया। सीलवन्ता सवीसेसा अद्दीणा जन्ति देवयं / / [21] और जिनकी शिक्षाएँ (ग्रहण-प्रासेवनात्मिका) विपुल (सम्यक्त्वयुक्त अणुव्रत-महाव्रतादि विषयक होने से विस्तीर्ण) हैं, वे शीलवान् (देश-सर्वविरति-चारित्रवान्) एवं उत्तरोत्तर गुणों से युक्त हैं, वे अदीन पुरुष मूलधनरूप मनुष्यत्व से आगे बढ़ कर देवत्व को प्राप्त होते हैं / 22. एवमद्दीणवं भिक्खु अगारि च वियाणिया / ____ कहण्णु जिच्चमेलिक्खं जिच्चमाणे न संविदे // [22] इस प्रकार दैन्यरहित भिक्षु और गृहस्थ को (देवत्वप्राप्ति रूप लाभ से युक्त) जानकर कैसे कोई विवेकी पुरुष उक्त लाभ को हारेगा (खोएगा)? विषय-कषायादि से पराजित होता हुआ क्या वह नहीं जानता कि मैं पराजित हो रहा हूँ (देवगतिरूप धनलाभ को हार रहा हूँ ?) विवेचन–वाणिकपुत्रत्रय का दृष्टान्त प्रस्तुत अध्ययन के अध्ययन-सार में तीन वणिक् पुत्रों का दृष्टान्त संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। इस दृष्टान्त द्वारा मनुष्यत्व को मूलधन, देवत्व को लाभ और मनुष्यत्व रूप मूलधन खोने से नरक-तिर्यञ्चगति-रूप हानि का संकेत किया गया है। ववहारे उवमा यह उपमा व्यवहार-व्यापारविषयक है। 'मूलं' का भावार्थ जैसे मूल पूंजी हो तो उससे व्यापार करने से उत्तरोत्तर लाभ में वृद्धि की जा सकती है, वैसे ही मनुष्यगति (या मनुष्यत्व) रूप मूल पूंजी हो तो उसके द्वारा पुरुषार्थ करने पर उत्तरोत्तर स्वर्ग-अपवर्गरूप लाभ की प्राप्ति की जा सकती है / परन्तु मनुष्यत्व गतिरूप मूल नष्ट होने पर तो वह मनुष्यत्व-देवत्व-अपवर्ग रूप लाभ खो देता है और नरक-तिर्यञ्च गतिरूप हानि ही उसके पल्ले पड़ती है।' ____जिए लोलयासढे क्योंकि लोलता-जिह्वालोलुपता और शाठ्य-शठता (विश्वास उत्पन्न करके वंचना करना-ठगना), इन दोनों के कारण वह मनुष्यगति-देवगति को तो हार ही चुका होता है। क्योंकि मांसाहारादि रसलोलुपता नरकगति के और वंचना (माया) तिर्यञ्चति के आयुष्यबन्ध का कारण है / 2 बहमूलिया--ये दोनों गतियाँ वधमूलिका हैं। वधमूलिका के दो अर्थ-(१) वध शब्द से उपलक्षण से महारम्भ, महापरिग्रह, असत्यभाषण, माया आदि इनके मूल कारण हैं, इसलिए ये बधमूलिका हैं / अथवा (2) वध-विनाश जिसके मूल-आदि में है, वे वधमूलिका हैं / वध शब्द से छेदन, भेदन, अतिभारारोपण आदि का ग्रहण होता है। वस्तुतः नरक और तिर्यञ्चगति में वध आदि आपत्तियाँ हैं। 1. उत्तरा. मूल अ. 7 मा. 15-16, 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 280 (ख) चूणि, पृ. 164 (ग) स्थानांग, स्था. 4 / 4 / 373 3. बहदवत्ति, पत्र 281 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org