________________ 1081 [उत्तराध्ययनसूत्र ही साधु अपने पात्र आदि उपकरणों को जहाँ जाए वहाँ साथ में ले जाए, कहीं रखे नहीं; तात्पर्य यह है कि पीछे की चिन्ता से मुक्त-निरपेक्ष होकर विहार करे। (2) बृहद्वत्ति के अनुसार-पक्षी दूसरे दिन के लिए संग्रह न करके निरपेक्ष होकर उड़ जाता है, वैसे ही भिक्षु निरपेक्ष होकर रहे और संयमनिर्वाह के लिए पात्र लेकर भिक्षा के लिए पर्यटन करे---मधुकरवृत्ति से निर्वाह करे, संग्रह की अपेक्षा न रखे-चिन्ता न करे।' इन प्रमादों से बचे--प्रस्तुत गाथा 11 से 16 तक में निम्नोक्त प्रमादों से बचने का निर्देश है-(१) शरीर और उसके रूप-रंग आदि पर मन-वचन-काया से प्रासक्त न हो, शरीरासक्ति प्रमाद है। शरीरासक्ति से मनुष्य अनेक पापकर्म करता है और विविध योनियों में परिभ्रमण करता है, यह लक्ष्य रख कर सदैव अप्रमत्त रहे / (2) शरीर से ऊपर उठ कर मोक्षलक्ष्यी या आत्मलक्ष्यी रहे, शारीरिक विषयाकांक्षा न रखे, अन्यथा प्रमादलिप्त हो जाएगा। (3) मिथ्यात्वादि कर्मबन्धन के कारणों से बचे, जब भी कर्मबन्धन काटने का अवसर पाए, न चूके / (4) संयमयात्रा के निर्वाह के लिए आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में आहार ग्रहण-सेवन करे, अनावश्यक तथा अधिक मात्रा में आहार का ग्रहण-सेवन करना प्रमाद है / (5) संग्रह करके रखना प्रमाद है, अतः लेशमात्र भी संग्रह न रखे, पक्षी की तरह निरपेक्ष रहे। जब भी माहार की आवश्यकता हो तब भिक्षापात्र लेकर गृहस्थों से निर्दोष आहार ग्रहण करे। (6) ग्राम, नगर आदि में नियत निवास करके प्रतिबद्ध होकर रहना प्रमाद है, अतः नियत निवासरहित अप्रतिबद्ध होकर विहार करे। (7) संयममर्यादा को तोड़ना निर्लज्जता-प्रमाद है, अतः साधु लज्जावान् (संयममर्यादावान्) रहकर अप्रमत्त होकर विचरण करे / अप्रमत्तशिरोमणि भगवान महावीर द्वारा कथित अप्रमादोपदेश 18. एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणधरे। अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए // -त्ति बेमि / [18] इस प्रकार (क्षुल्लक निर्ग्रन्थों के लिए अप्रमाद का उपदेश) अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी, अनुत्तर ज्ञान-दर्शनधारक, अर्हन्-व्याख्याता, ज्ञातपुत्र, वैशालिक (तीर्थंकर) भगवान् (महावीर) ने कहा है। __--ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन अरहा : दो रूप : दो अर्थ (1) अर्हन् == त्रिलोकपूज्य, इन्द्रादि द्वारा पूजनीय, (2) अरहा=रह का अर्थ है—गुप्त-छिपा हुअा। जिनसे कोई भी बात गुप्त-छिपी हुई नहीं है, वे अरह कहलाते हैं। 1. (क) 'यथाऽसौ पक्षी तं पत्रभारं समादाय गच्छति, एवमुपकरणं भिक्षुरादाय हिरवेक्खो परिव्वए / ' -उत्तरा. चूणि पृ. 156 (ख) 'पक्षीव निरपेक्षः, पात्रं पतद्ग्रहादिभाजनमर्थात् तन्निर्योग च समादाय व्रजेत्---भिक्षार्थ पर्यटेत् / इदमुक्तं भवति-मधुकरवृत्त्या हि तस्य निर्वहणं, तत्कि तस्य सन्निधिना ?' -बृहद्वृत्ति, पत्र 270 2. उत्तराध्ययन मूल, गा. 12 से 16 तक का निष्कर्ष 3. (क) उत्तरा. टीका, अ. रा. कोष 3 / 752 (ख) आवश्यकसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org